Tuesday, December 6, 2011

उत्तर और दक्षिण के बीच पुल




'' वाय दिस कोलावैरी डी '' ....सामान्य अर्थो में यह एक प्रेम गीत है प्रेमिका के अस्वीकार को जानलेवा स्तर पर भोगने की अभिव्यक्ति का गीतात्मक रूप - प्रेम में रिजेक्शन या अस्वीकार का भाव देवदास में भी है, पर यहां उसका आवेग कुछ अलग है।


संभव है आप में से बहुत से लोगों ने ना सुना हो -  '' वाय दिस कोलावैरी डी '' पर यह हमारे समय की एक आवाज है जिसकी गूंज भौगोलिक विस्तार में इतनी व्यापक हो जाएगी। इसके पीछे के लोगों ने भी नहीं सोचा होगा। यह कल्पनातीत सा है कि कोई इतनी तेजी से भारतप्रसिद्ध हो जाए, इतने कम समय में पर यह हुआ है और हम इसके घटित होने के गवाह बने हैं.। तथ्यों के रूप में कहूं तो यह गीत 16 नवंबर को यूट्यूब पर जारी हुआ था और अब तक इसे एक करोड़ पांच लाख 59 हजार 994 मर्तबा सुना गया है। भाषा के बंधन तोडते हुए गाना उत्तरी भारत में भी उतना ही सुना जा रहा है, युवाओं ने उसे रिंग टोन और हैलो टयून के रूप में हाथों हाथ लिया है। इसे गाया है धनुष ने, धनुष रजनीकांत के दामाद हैं, फिल्म है तीन और फिल्म का लेखन निर्देशन धनुष की पत्नी और रजनीकांत की बेटी ऐश्वर्या आर ने किया है. यह निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फिल्म है,  संगीतकार है - इक्कीस साल के अनिरूद्ध रविचंद्रन, गीत लिखा भी धनुष ने ही है।

सामान्य अर्थो में यह एक प्रेम गीत है प्रेमिका के अस्वीकार को जानलेवा स्तर पर भोगने की अभिव्यक्ति का गीतात्मक रूप - प्रेम में रिजेक्शन या अस्वीकार का भाव देवदास में भी है, पर यहां उसका आवेग कुछ अलग है। सामान्यतः नायक किसी भी फिल्म या नाटक में नायिका को पा ही लेता है, अस्वीकार को स्वीकार में बदलना पटकथा में नीहित होता है। इस लिहाज से कोलावैरी डी हमारे समय के स्त्री विमर्श का वह सशक्त रूप है कि अस्वीकार उसका भी अधिकार है और जबरन उसका साथ हासिल नहीं किया जा सकता, चाहे आपका प्रेम कितना भी तीव्र और प्रगाढ क्यों ना हो। उसे करूणा और तात्कालिक किसी और भाव से भी नहीं जीता जा सकता, अगर उसमें स्वतः ही प्रेम का भाव नहीं है तो कुछ नहीं हो सकता। कहने को कहा जा सकता है कि स्त्री हमेशा से इतनी आजाद तो रही ही है पर साहेब फिल्म या कथा में इतनी आजादी उसे अपवाद स्वरूप ही मिली है …. इसे इस रूप में लेना चाहिए।

महानता के खयाल को अलग रखकर एक बार जरा हम लोकप्रियता और भौगोलिक विस्तार के लिहाज से देखें तो अखिल भारतीय स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। सबसे बडा अर्थ क्या यह नहीं है कि शताब्दियों से अलग अलग रूप में परिभाषित किए गए उत्तर दक्षिण के भेद को एक बार फिर बहुत मजबूती से एक सांस्कमिक पहचान ने पाट दिया है, वह है संगीत। बार बार कहा गया है कि संगीत की कोई जुबान नहीं होती पर उत्तर और दक्षिण के संगीत के अंतर को हम जानते पहचानते समझते रहे हैं। लोकप्रिय संगीत के रूप में एआर रहमान हमारे पास हैं पर वे जब बॉलीवुड में होते हैं तो पूरी तरह बॉलीवुड के ही होते हैं, प्रकटतया इस प्रकार का पुल उन्होंने शायद ही बनाया हो या यह कह दिया जाए कि ऐसे पुल सायास नहीं बनते है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले फिल्मों में उत्तर दक्षिण के बीच पुल जैसा काम नहीं हुआ, कमला हसन की फिल्म एक दूजे के लिए आपको याद ही होगी। फिर तो ''आपडिया'' और उसके जवाब में ''जैसे सब समझ गया'' संवाद भी याद होगा! यूं सामान्यत दक्षिण भारतीय पात्र बॉलीवुड की फिल्मों में मसखरे से ही आते हुए लगते हैं।

राजनीतिक इकाई के तौर पर हम देश हैं और धीरे धीरे एक देश का भाव हम में विकसित भी हुआ है, और इसमें ऐतिहासिक रूप से भारत की विरासत का भी योगदान है कि हम देश के रूप में मानते और स्वीकार करते हैं, दक्षिण भारत सामान्यतः इडली डोसा के रूप में याद आए या हर दक्षिण भारतीय कमोबेश पहली नजर में मद्रासी लगे, यही तो सामान्यीकरण है, जो दशकों से उत्तर भारतीयों में व्याप्त है।

ये उत्तर और दक्षिण के मिलन का समय है, घोटालों के जरिए डी राजा, कनिमोझी जैसे कुछ नेता लोग उत्तर भारतीयों में जाने जाते हैं । रजनीकांत के जोक हम सब के मोबाइलों में आते-जाते हैं, सिल्क स्मिता की कहानी ''द डर्टी चिक्चर'' हमें हमारे आसपास की कहानी लग रही है, और उत्तर दक्षिण के मेल के रूप में कोलावरी का नवीन निगम का गाया वर्जन भी लोकप्रिय हो रहा है।

संदर्भ आ ही गया है तो बता दें, चेतन भगत का उपन्यास ''टू स्टेटस'' दिल्ली और तमिलनाडु के लेखक दपत्ति की कथा से प्रेरित है, चाहे उसे हम लेखकीय मानको पर खारिज ही क्यों न कर दें, इस पर विशाल भारद्वाज फिल्म भी बना रहे हैं, खुदा खैर करे!! राजस्थानी होने के नाते हम जानते हैं कि कितने ही राजस्थानी दशकों से दक्षिण में व्यवसाय कर रहे हैं, इस समय यह बढ गया है लोग नौकरी के लिए वहां जा रहे हैं... हम आपके पारिवारिक करीबी कितने ही युवा बैगलोर से लेकर चेन्नई तक हैदराबाद से लेकर दूसरे शहरों में खुशी से जीवन जी रहे हैं, सरकारी नौकरियों के अलावा ऐसा ऐच्छिक पलायन सभी संतुष्टियों नहीं तो कम से कम अधिकांश के साथ ही हो सकता है.. यह तो आप भी मानेंगे ही! हमें खुश होना चाहिए कि देश के बीच की दूरियां मल्टीपल लेवल पर कम हो रही है, समाप्त प्राय हो रही हैं, पिछली पीढी में नौकरी के नाम पर कम से कम कहा ही जाता था कि खाने से लेकर भाषा तक की दूरियां कहां जीवन को सरल सुगम होने देंगी!

भारत जैसे महादेश के लिए यह स्वाभाविक है कि हम इतने तहजीबी और भाषाई अंतरों के साथ एक ही देश में सांस लेते हैं …... विध्य के पार का भारत भी अपना ही है। आर्यो और द्रविडों का भेद अब उतना नहीं रह गया है, यह भेद अभी और कम होगा, ये संपर्क अभी और बढेगा। यकीन मानिए! आने वाले समय में बहुत प्रेम होगे और बहुत प्रेमविवाह भी, हमारे घरों में उत्तर दक्षिण का यह मेल सुबह शाम, आठो पहर महसूस होगा।

1 comment:

prithvi said...

ठीक बात सा. सामाजिक सन्दर्भ बदल रहे हैं और इस गीत की लोकप्रियता भी इसके एक प्रमाण के रूप में ली जा सकती है