Tuesday, January 24, 2012

विदाई का गीत





ए जाते हुए लम्हों जरा ठहरो...जरा ठहरो


सिगरेट के धुएं के छल्ले, कुछ खुशबूएं, कुछ मादक गंध, कुछ प्यारे से- चिकने- चुपड़े चेहरे याद रह जाएंगे, कुछ सितारे यादों में बसे रह जाएंगे, कुछ शब्द जेहन में चिपक के कुछ दिन हमसफर रहेंगे।


बेशक ये दोपहर थी, पर सांझ के कुछ बदमिजाज और जिददी साए जनवरी की धूप में शामिल होकर इतरा रहे थे, लहरा रहे थे। ये आखिरी लंच था इस साल के फेस्ट का, देख पा रहे हैं कि गोविंद निहलानी अकेले अपनी साफ शफाफ सी प्लेट में करीने से छोला- पुलाव डाल रहे हैं, उनके चेहरे के भाव उनकी फिल्मों की तरह हैं। राजस्थान में उनका बचपन गुजरा है, उत्सव के बहाने यहां होना और इन लम्हों को सहेज लेना उनके लिए मुश्किल नहीं है, सीन दर सीन एक निर्देशक की आंखों में दर्ज हो रहे हैं। मैं पूछता हूं-' आखिरी दिन है, कैसा लग रहा है?', मुस्कुराहट के सिवा कुछ नहीं कहते। बीतते लम्हों की कसक का बयान या तो आंसू करते हैं या मुस्कुराहट।

माहौल में अभिजात्यता है, गंध में कितनी देशी- विदेशी गंध शुमार हैं, इसकी गिनती बहुत मुश्किल है, गंध में एक गंध शब्दों की है, बातों की है, जो बीत गया है उसकी है, जो ठहर गया है, उसकी है। आखिरी दिन से पहले की शाम की संगीत लहरियों में पार्वती बारूआ के बाद राजस्थानी यूजन की याद नीलाभ अश्क की बातों में अब भी घुली हुई है। उनके साथ बैठे ऑस्टे्रलियन पेंटर डेनियल कॉनेल के मुंह से हिंदी में निकला- 'जयपुर चमक रहा है।' यह चमक- दमक है, इसमें महक भी है, यह वह जयपुर अब नहीं है, दिल्ली से आए छात्राओं के समूह में से एक छात्रा से बात करता हूं, पता चलता है कि उनके मन में क्या है, उनका मन है-''इसे महीने भर का होना चाहिए।'' यह इनसानी मन है, जो भरता नहीं है, भरने की कोशिश में और रीतता जाता है, प्यास बढती जाती है।

किताबों की दुकान पर मेला है, किताबें देख रहे है, खरीद रहे हैं, लगता है दुनिया बस किताबों सी सुंदर हो जाने वाली है, एक लेखक प्रकाशक गेट पर जाते हुए मिल गए, जावेद अख्तर की किताब 'लावा' के विमोचन की बेला की चमक उनकी आंखों में जिंदा है, जाते हुए उनके कदम ठिठक रहे हैं, शायद गुलजार के लफजों में 'रुके रुके से कदम, रुक के बार- बार चले'।

रूश्दी नहीं आए, नहीं बोल पाए, उनके विचार गूंजते रहे जैसे किसी भी कलमकार के होते हैं। सिगरेट के धुएं के छल्ले, कुछ खुशबूएं, कुछ मादक गंध, कुछ प्यारे से- चिकने चुपड़े चेहरे याद रह जाएंगे, कुछ सितारे यादों में बसे रह जाएंगे, कुछ शब्द जेहन में चिपक के कुछ दिन हमसफर रहेंगे। अगले साल इन्हीं दिनों तक, नए मजमें के सजने तक ये लम्हे यादों के एलबम में रह जाएंगे। सबके लबों की दुआ लौट-लौट कर आते कदमों की आहट में घुली हुई सी है कि वक्त ठहर जाए, यहीं कहीं।

1 comment:

सुभाष नीरव said...

भाई दुष्यंत, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जाने का सौभाग्य तो नहीं मिला, पर जयपुर आया ज़रूर था 21-22 जनवरी 2012 में। तुम्हारी इस पोस्टिंग ने इस फेस्टिवल के अन्तिम दिन का जो चित्र खींचा है, बड़ा लाजवाब है। बहुत ही खूबसूरत भाषा, प्रस्तुति… बेहद जीवंत सा लगा आपका यह कहने का अंदाज…बताने का अंदाज…