Friday, May 15, 2009

इस दौर के लिए अफ़सोस भी..शुकराना भी


चुनाव निपट गए.. कुछ नेता निपट गए और मुद्दे की बात जनता फिर निपट गयी । दुनिया भर की मंदी के बीच भारत में फैलते चुनावी कारोबार को देखकर एकबार लगा मंदी हमारे यहाँ तो है ही नहीं। यही मुगालता पाल लें, चलिए कुछ देर के लिए, पर कबूतर के बिल्ली को देखकर आँख बंद कर लेने से बिल्ली गायब थोड़े ही हो जाती है। मंदी का बुनियादी सच ये है कि कॉर्पोरेट जगत की चमक जहाँ थी वहीं मंदी है जहाँ चमक नहीं थी, वहाँ हालत यथावत हैं.. साठ सालों में जहां कुछ खास नहीं बदला ऐसी चार दिन की चमक चांदनी क्या कर लेती? छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में इन दिनों चमक है वहां कॉर्पोरेट चमक बहुत कम या ना के बराबर थी। अब वहाँ छोटे व्यवसायियों की चमक देखिये,वजह मामूली नहीं है, सरकारी नौकरी और छठे वेतन आयोग की चमक है, महानगरों में बैठकर उस चमक का अंदाजा लगाना मुश्किल है हालाँकि इन सालों में महानगर कसबे और गाँव का फर्क कुछ कम हुआ जब दूर दराज के प्रतिभाशाली युवा ऊँचे पैकेजों की चमक में महानगरों में आये हैं, पर मुठ्ठी भर ऐसे लोगों से पूरे गाँव देहात तो नहीं बदल सकते हैं।और वैसे भी इन सालों में जो जीवन बदला है, उसके यूं टर्न लेने की सभावनाएं मुझे इस मंदी से दिखती है. लोन दर लोन से..सुविधाओं के चक्रव्यूह और धन से सब कुछ खरीदने के मुगालते वाले तथाकथित पैकेज मूलक सफलता में पगलाए लोगों के लिए मंथन और जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने खोजने जानने का अद्भुत अवसर दिया है मंदी ने। न्यूनतम साधनों में जीने और मानसिक अध्यात्मिक आनंद को सर्वोतम मानने वाली भारतीय जीवन शैली को इतिहास की किताबों में सजाने का पक्का इंतजाम करने वालों मित्रों को आत्मावलोकन का भी अवसर दिया है इन मंदी के हालातों ने।देश में नई सियासी सूरतेहाल है। पर देश के निजाम से ये तय न पहले हुआ न अब होना है, ये हमें खुद चुनना है, हम खुद ही चुनते हैं अपने लिए और अपनी आनेवाली नस्लों के लिए...

Thursday, April 23, 2009

एक वादे का पूरा होना




साल भर बाद एक वादा पूरा किया ...भाई आलोक प्रकाश पुतुल ( मेरे जिन्दगी के तीन आलोकों में से एक - पहले बड़े भाई कुख्यात विख्यात आलोक तोमर, दूसरे शायर आलोक श्रीवास्तव और ये तीसरे हैं रायपुर वाले भाई आलोक पुतुल) से कहा था कि कविता कहानी से इतर कुछ दूंगा ... उनके वेब पोर्टल रविवार के लिए...ये खुद से भी वादा किया कि कविता कहानी के अलावा दूं॥क्योंकि जब भी किसी लेखक मित्र से लेखकीय सहयोग माँगता हूँ तो झट से जवाब मिलता है हाँ कवितायेँ देता हूँ ..या हद से हद कहानी...मैं मानता हूँ कि इससे इतर लेखन में बहुत जोर आता है पर जिन्दगी इनसे इतर विधाओं में भी बेहद संजीदगी और करीबी से अभिव्यक्त होती है..खैर हो सकता है मैं गलत होऊं..

जो लिख पाया आलोक भाई के बार बार इसरार के बाद.... पेशे नज़र है ......

आम चुनाव उर्फ ऐसा देश है मेरा




नहीं, ये किसी विशेषज्ञ की राय नहीं है, राजनीतिक राय तो हरगिज नहीं. आप चाहें तो इसे एक आम आदमी के नोट्स मान सकते हैं.
बुनियादी परन्तु सतही बात से शुरू करुं तो राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं, जिन पर 7 मई को मतदान होगा.पिछले लोकसभा चुनाव में 21 पर भाजपा जीती थी तो 4 पर कांग्रेस. इस बार भाजपा और कांग्रेस हर बार की तरह सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहें हैं. बसपा की हवा इसलिए निकली हुई है कि सभी 6 विधायकों ने सत्तारूढ कांग्रेस में जाने का हाल ही में निर्णय ले लिया.
खैर ये तो हुई सामान्य बात, अब कुछ अलग ढंग से देखा जाये, अपनी चार यात्राओं का सन्दर्भ लूंगा. एक महीने में अपने गृह क्षेत्र की दो यात्रायें, एक यात्रा मारवाड़-पाली क्षेत्र की और एक साल भर पहले की दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र की.
मेरा गृह क्षेत्र है उत्तरी राजस्थान यानी गंगानगर और हनुमानगढ़ ..पाकिस्तान की सीमा से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर अपने खेतों को छूने की हसरत से गया. कोई पिछले ढाई दशक से जब से होश संभाला है, इस गाँव और खेत के मंजर को देखते आया हूँ. लोग कहते हैं बहुत कुछ बदला है. मुझे पता है, बदला तो बहुत कुछ...ऊँटों की जगह ट्रेक्टर आ गए. पहले फोन घरों में आये फिर हाथों में मोबाइल आ गए. पढी लिखी बहुएं आ गयी, हर घर में कम से कम एक दोपहिया फटफटिया ज़रूर है.
कोई साढे तीन दशक पहले मेरे गाँव से तीन किलोमीटर दूर के पृथ्वीराजपुरा रेलवे स्टेशन से जो अंग्रेजों के जमाने का है; से मेरी मां दुल्हन के रूप में ट्रेन से उतरकर ही इस गांव तक आयी थी. मेरे बचपन में गाँव तक शहर से बस जाती थी, कोई पांच बसें. यही पांच वापिस लौटती थीं, सब की सब बंद हो गयी हैं. अब सिर्फ टेंपो चलता है, बिना किसी तय वक्त के, जब भर दिया तो चल दिया...!
बचपन में जहां मेरे गाँव में बीड़ी और हुक्के के अलावा कोई चार पांच लोग शराब पीते होंगे, अब तरह-तरह के नशे युवाओं की जिन्दगी में शामिल हैं, जिन्होंने उन शराबियों को तो देवता-सा बना दिया दिया है. और ये हालत कमोबेश आसपास के हर गाँव की है. हमने तरक्की के कितने ही रास्ते तय किये हैं!
मेरे पिता गाँव के जिस सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़कर गाँव के पहले स्नातक, पहले स्नातकोतर और फिर पहले ही गजेटेड हुए, दसेक साल पहले वो मिडिल हो गया था. पर अब उसमें बच्चे नाम को हैं. मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दो चार सालों में वो बंद हो जाये. सुना है उसमें मास्टर सरप्लस हैं. ये भी तरक्की है कि नाम के अंग्रेजी या पब्लिक स्कूलों में कम पढ़े-लिखे मास्टरों के पास बच्चों को भेजकर गाँव खुश है.
नरेगा है पर गाँव में भूख भी है. स्कूल है, पढाई है पर बेरोजगारी भी है. नयी पीढी ने खेत में हाथ से काम करना बंद कर दिया है, तीजिये चौथिये पान्चिये से ही काम होता है. भारत चमकता है जब सफ़ेद झक्क कुरते पायजामे में पूरे गाँव के लोग दिखते हैं. किसी की इस्त्री की क्रीज कमजोर नहीं है..अद्भुत अजीब से आनंद हैं .. कागजी से ठहाके हैं...भविष्य कुछ भी नहीं पता. एक और बदलाव आते देखा है छोटे किसानों की ज़मीनों को कर्ज निपटाने के लिए बिकते और फिर उनको मजदूर बनते भी देखा है.. मुहावरे में कहूं तो कर्ज निपटाने में जमीन निपट गई और अब खुद भी कब निपट जाए, कौन जानता है? कर्ज से मुक्ति की चमक उनकी ऑंखों में ज्यादा है या कि ऑंखों के कोरों से कभी आंसू बनके टपकता अपनी ज़मीन जाने का दर्द बड़ा है ..मैं सोचता रहता हूँ.. वो भी आजादी का मतलब ढूंढते हैं शायद.
मध्य राजस्थान का मारवाड़ का इलाका यूँ तो बिज्जी जैसे लेखक के कारण स्मृतियों में है पर इन सालों में कई बार जाना हुआ है... पाली के एक इंटीरियर इलाके में किसी पारिवारिक कारण से जाता हूँ. दूर तक हरियाली का नामों निशान नहीं. चीथड़ों में लोग दीखते हैं. जीप का ड्राईवर कहता है- साब यहाँ का हर गरीब सा दिखने वाला करोड़पति है..विश्वास नहीं होता. वो कहता है-हर घर से कोई न कोई मुंबई, सूरत या बैंगलोर नौकरी करता है...यहाँ खेती तो है नहीं साहब...!
मुझे उसकी बात कम ही हजम होती है..क्योंकि मुनव्वर राणा का शेर कभी नहीं भूलता -' बरबाद कर दिया हमें परदेश ने मगर, मां सबसे कह रही है बेटा मजे में है', दूर तक..या तो ये ड्राइवर उसी भाव से कह रहा है या कि अपने लोगों की बेचारगी-मुफलिसी का मजाक नहीं बनने देता. दरअसल सच तो ये ही है ना कि दूर तक बियाबान है.
किसी हड्डी की लकड़ी-सी काया पर ऊपर रखी हुई लोगों की आंखें किसी परदेसी की जीप का शोर सुनकर चमकती है..मैं उसमें साठ साल की आजादी का मतलब ढूंढता हूँ. जिस नज़दीक के रेलवे स्टेशन मारवाड़ जंक्शन पर उतरता हूँ और फिर जहाँ से वापसी में जोधपुर के लिए ट्रेन लेता हूँ, उसके अलावा कोई साधन नहीं है, ये भी बताया जाता है. कुल मिलाकर एक अलग भारत पाता हूँ.. जो जयपुर में बैठकर सचिवालय में टहलते, कॉफी हाउस में अड्डेबाजी करते, मॉल्स में शॉपिंग करते, हर हफ्ते एक न एक फिल्मी सितारे को शूटिंग, रिबन काटने, किसी की शादी या अजमेर की दरगाह के लिए जाते हुए की खबर पढते हुए सर्वथा अकल्पनीय है.
एक साल पहले बांसवाड़ा के घंटाली गाँव में आदिवासी संसार को देखने के अभिलाषा में गया था. सामाजिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट नेता श्रीलता स्वामीनाथन मेरी मेजबान थीं.
इलाका जितना खूबसूरत लोग उतने ही पतले दुबले मरियल... अल्पपोषण के शिकार...खेती नाममात्र को..आय का कोई जरिया नहीं..भाई आलोक तोमर की किताब एक हरा भरा अकाल के सफे जैसे एक-एक कर ऑंखों के सामने खुल रहे थे..कालाहांडी का उनका शब्दचित्र अपने राजस्थान में सजीव होते पाया. हरियाली वाह...अति सुन्दर पर लोगों का जीवन...बेहद मुश्किल .. हालाँकि जीने की आदत डाल लेना इंसानी खासियत भी है और मजबूरी भी, इंसान इन क्षणों में भी मुस्कुराने के अवसर खोज लेता है.
मुझे इतने मुस्कुराते चेहरे मिले...पता नहीं इस अपेक्षा में कि कोई सरकार से जुड़ा आदमी होगा, कोई मदद करेगा. फिर लगा इस तरह तो साठ साल में बहुत लोग आये होंगे, बहुत मिथक खुशफहमियां टूटी होंगी...फिर भी कुछ है कि मुस्कुराहटें अब भी हैं. उन में कुछ लोगों से बात की. कुछ की आंखें पढने की कोशिश की..कुछ ने जो कहा, उनमे से जो नहीं कहा, उसे खोजकर पढना चाहा तो लगा...जिसे अंग्रेजी वाले 'टु रीड बिटवीन द लाइंस' कहते हैं. उन्हें अब भी नेताओं से उम्मीदें है..लोकतंत्र से उम्मीदें हैं..ये ही बस लोकतंत्र की जीत है क्या...क्या कि उससे उम्मीदें अब भी हैं.

ये चेहरा सारे राजस्थान का होगा, ये सोचना शायद बहुत गलत नहीं होगा, पूरे भारत का सच भी यह हो सकता है. बस स्थानीय अंतरों को एक बार अलग रख लें तो...आपके आसपास भी थोड़े बहुत साहित्यिक-से डिटेल्स के फर्क को छोड़ दें तो..और दूसरा ये न माने कि चमकते महानगरीय भारत और तकनीकी क्रांति..मंदी से पहले की कॉर्पोरेट चमक और हाल ही की सरकारी कर्मचारियों की छठे वेतन आयोग की चमक से हम नावाकिफ हैं या उसे कम महत्वपूर्ण मानते हैं..पर उस चकाचौंध में हम जिस भारत की तस्वीर को बिलकुल नज़र अंदाज कर देते हैं..उसे देखकर मेरी अनुभूतियों के तिलमिला जाने के बयानबध्द करने की कोशिश को आप चाहे जैसे देख सकते हैं पर इस वक्त जबकि अपनी जाति के लिए भाजपा से लड़ने वाले बैंसला भाजपा में शामिल हो गए हैं... पर उनका यह शामिल होना पार्टी में बवाल मचाये हुए है और उस आन्दोलन के जातीय चरित्र को छोड़ते हुए जिस नायक का चेहरा मैंने उभरते देखा महसूस किया था, वो अब मेरी नज़रों में धूमिल सा हो रहा है.
जाति धर्म..इलाके..और संबंधों ने हमेशा की तरह टिकटों का फैसला किया है और ये हर दल में हुआ है...देश और जमीन के लिए बुनियादी बदलावों के नाम पर कुछ होना एक मासूम सा ख्वाब है शायद. मुझ समेत हर किसी को अपने परिवार, अपने बच्चों, अपने करिअर की पड़ी है. चुनाव से देश की तकदीर बदलेगी,सभव है आपको इस बार लगता हो, हम ऐसा होने की दुआ करें.. दुआ ही कर सकते हैं..क्या वाकई सिर्फ दुआ ही कर सकते हैं? …..!!! इस चुनाव में हम गांधी के अंतिम व्यक्ति या अंतिम भारतीय की भी जीत हो…जय हो.

Monday, April 6, 2009

बहुत दिनों बाद एक कविता



शीर्षक विहीन


एक उदास सी शाम

बैठी है

बिजली के तारों पर

गुनगुनाती है कोई साठ के दशक का हिन्दी फिल्मी गीत

दूर कल्पना में गाव की एक ध्वनि सुनती है

तो टूटता है क्रम

उसी पल सड़क के कोलाहल में सूरज शाम के

कानो में आकर कहता है

कब से बैठी हो .

जाओ...

कुछ काम नहीं है क्या...?

Wednesday, March 25, 2009

तू ज्योंदा रहे मेरे शहर



आज सुबह उठा तो मेरे शहर -जो है भी और नहीं भी यानी श्री गंगानगर से एक एसएमएस ने बेहतर दिन की दुआ दी. ये आज खास इसलिए कि शहर बहुत याद आया ..हालाँकि वो दिन शायद ही हो जब मुझे उस शहर की याद न आती हो .. यूँ मेरे बचपन की स्म्रतियों में हनुमानगढ़ जिले का पीलीबंगा इलाका जो उस वक्त श्रीगंगानगर जिले का ही भाग था ..है तो किशोरपन की यादें भी उसके आसपास से ही है पर सिर्फ पॉँच साल की गंगानगर की रिहायश ने मुझे उस शहर का बना दिया है जितना पंद्रह साल की रिहायश ने जयपुर को नहीं बनाया खैर वो सुबह वाला सन्देश बाँटते हुए उस शहर को याद कर रहा हूँ -


रेलवे रोड दे नजारे ना हुँदै


मटका चौक दे इशारे ना हुँदै


जे गोदारा कोलेज दियां कुडियां ते सारे गंगानगर दे मुंडे आवारा ना हुँदै


रोनक लगदी ना दुर्गा मंदिर रोड ते गुरुनानक स्कूल विच हुस्न दे पवाडे ना


हुँदै खालसा कोलेज रोड वी सोणा ना होंदा


जे जीन टॉप ते लक दे हुलारे ना हुँदै



पंजाबी ना समझ पाने वाले मित्रों से क्षमा सहित

Sunday, March 15, 2009

तिब्बत का दर्द अपना भी है...



बचपन से हम तिब्बत को संसार की छत के रूप में पढ़ते हैं फिर वो भूगोल से हमारे इतिहास के अध्ययन में शामिल होता है तो कभी दयानंद सरस्वती उसे आर्यों का मूल निवास स्थान बताते हैं तो कभी उसे बोद्धों के एक प्रमुख केंद्र के रूप में जानते हैं और राहुल संकृत्यायन की चार तिब्बती यात्रायें भी हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं ,ये हमारी नियति या तिब्बत की दुर्गति कहें या समय का फरेब कि वो हमारे वर्तमान में भी है दुखद कारणों से है अशांत है, ये अफ़सोस की बात है ।
भारतवर्ष के इतिहास और संस्कृति का ये अमर पात्र इन दिनों अपने इतिहास की एक घटना के पचास साल पूरे कर रहा है ,वो घटना है क्रांति की जो 1959 में 10 मार्च को हुई थी इतिहास से वर्तमान में आके बात करें तो दलाई लामा भारत में शरणार्थी हैं ..हिमाचल के धर्मशाला में उनकी तथाकथित सरकार का कार्यालय भी है और ये आज से नहीं है इसे भी पचास साल हो गए हैं
जग जाहिर है कि भारत तिब्बत की इस सरकार को कूटनीतिक मान्यता देता है और चीन से भी उसके सम्बन्ध ठीक ठाक से हैं और तिब्बत का संघर्ष चीन से है हम ज्यादा कूटनीतिक पेचीदगियों में न जाएँ तो भी तिब्बतियों के हक की पैरवी करते भारत के बाशिंदों के लिहाज से उस दिन को इस रूप में देखना ज़रूरी लगता है कि 86 हज़ार तिब्बतियों के बलिदान के बाद भी तिब्बतियों को वो हक नहीं मिले थे जो वो मांग रहे थे चाह रहे थे इस लिहाज से ये उनका 1857 है हमारी सांस्कृतिक जड़ें उस देश में है ,
पाकिस्तान में लोकतंत्र खतरे में है बांग्लादेश में एक विद्रोह हुआ ही है श्री लंका और नेपाल भी कोई बहुत बेहतर स्थितियों में नहीं है पूरा भारतीय उपमहाद्वीप जिस तरह के दौर से गुजर रहा है उस दौर के बीच उस के सबसे बड़े देश और महा लोकतंत्र में आम चुनाव का बिगुल बजा है ! क्या हमें अपने आस पास देखना नहीं चाहिए..ताज़ा खबर ये है कितिब्बती संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के जेनेवा स्थित मानवाधिकार आयुक्त को गुहार लगाईं है कि चीन उस असफल क्रांति की पचासवीं सालगिरह के आयोजनों में भी भय दिखा रहा है और हमारे मानवाधिकारों का हनन दशकों से बदस्तूर जारी है... तिब्बत की भी कोई सुनेगा क्या?

Thursday, March 5, 2009

प्रभु जोशी - तुम चन्दन हम पानी

कलम पर पढ़ें

जाने माने चित्रकार और कथाकार प्रभु जोशी के काम और शख्सियत पर मेरी एक टिप्पणी -जो कल पत्रिका के इंदौर संस्करण में प्रकाशित हुई है


रंगों और शब्दों के बीच की आवाजाही का पड़ाव जयपुर

Sunday, March 1, 2009

रही परदे में न अब वो पर्दानशीं .....



स्लमडॉग मिलिनेयर और ऑस्कर पर अमिताभ बच्चन तक की राय इस तरह बदली कि दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है। मैं न तो डॉग शब्द की मीमांसा करने जा रहा हूँ ना भारत की छवि पर कोई स्यापा कर रहा हूँ कि भारत की बुराई से ही पुरस्कार मिलते हैं॥चाहे साहित्य हो या सिनेमा .पहली बात तो यह कि क्या कहानी,उसका लेखक और परिवेश,अभिनेता,गीत संगीत और तकनीकी स्तर पर ढेर सारे लोगों के जुड़ जाने के बाद भी सिर्फ इस आधार पर इसे भारतीय फिल्म होने से खारिज कर देना ठीक है कि इसके निर्माता निर्देशक भारतीय नहीं हैं.देखिये , बेशक साहित्य और सिनेमा जिन्दगी से बनते हैं और जिन्दगी इनसे मुतासिर होती है पर यकीनन धागे सी दूरी है इनकी जिन्दगी से...दोनों बिम्ब के माध्यम हैं सौ फीसदी सच दिखाना न साहित्य का काम है न सिनेमा का ...जैसे अतीत का सच इतिहास की विषय वास्तु है न कि ऐतिहासिक फिक्शन की ...एक बार हम मान लें स्लम डॉग में अतिरेक में भारत की बुराई को दिखाकर महान बनने की चेष्टा की गयी है तो कहूंगा कि जौहरों, चोपडाओं बडजात्यों के बौलीवुड में जो कुछ दिखाया जाता है क्या वो सच होता है पंजाब से बचपन से जुडाव रहा है ... वहाँ की नदियों का पानी पीकर और उससे सींचे खेतों का अन्न खाकर बड़ा हुआ हूँ . लोकप्रिय सिनेमा का पंजाब मुझे कहीं भी असली पंजाब नहीं लगता ..गुलज़ारनुमा कोशिश अपवाद स्वरुप ही होती हैं और जो दिखता है उसे मैं पंजाब में ढूंढता रहता हूँ . एक दिन मित्र फिल्मकार दीपक महान कह रहे थे कि भला हो भारतीय दम्पतियों की सूझबूझ का वरना कश्मीर में बर्फ पर नाचते गाते जोडों को देखकर फिर वास्तविक जिन्दगी में न पाकर तलाक़ देते देर न लगे कि मेरी पत्नी या पति वैसा नहीं लग रहा है ये है हमारा सिनेमा ,मेरा निवेदन ये है कि साहित्य और सिनेमा में जिन्दगी को यथारूप में न तो तलाश करना चाहिए न ये मुमकिन है . कहना चाहिए कि लोकप्रिय सिनेमा और डॉक्यूमेंट्री के बीच में यथार्थ के करीब का है सार्थक या समांतर सिनेमा..हाँ कभी भी इस हाशिये की सिनेमाई दुनिया का कोई उत्पाद भी लोकप्रिय हो जाता है या कभी इसका उलटा भी ..वो विरले हैं जो लोकप्रिय सिनेमा या साहित्य रचते हुए सार्थक बना जाएँ जिन्दगी के कड़वे सच से रूबरू करवादें
हाल में आई देव डी मुझे ब्रिलिएंट फिल्म लगी अनेक लोगों को फिल्म की भाषा को लेकर आपत्ति थी ..वो अपनी जगह गलत नहीं है पर जिस युवा वर्ग की वो फिल्म है ये उनकी भाषा है उनका जीवन है उनके समय का जीवन है , उन इत्रों से कहूंगा यकीन न आये तो २० से पचीस की उम्र के अपने भाई बहनों भतीजों के एसएमएस, ई मेल, चेट की भाषा एक दिन चोरी से पढने का नैतिक अपराध कर लें और ये भी कि जो कहे वो करें और जो करें वो ही जाहिर करें ये साहस भी उस पीढी में मिलेगा..हम भारतीय प्रतिकार की बजाय कड़वा घूँट पीने को महान मानते हैं ..बुरे के खिलाफ बोलने की बजाय चुप रहना...ये लगभग वैसे ही है जैसे सडांध मारते रिश्तों को जीना जीते रहना और मरने की हद तक जीनाखैर सिनेमा और साहित्य के वो बिम्ब जो यकीनन जिन्दगी से उठते हैं फिल्मकार या साहित्यकार की आंख ही जिन्हें देखती है और हम वाह कह उठते हैं इसकी वजह शायद ये होती है कि हम उसे उस तरह से नहीं देख पाते हैं...जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पात्र मैं हर बंगाली में ढूंढता हूँ पर निराश होता हूँ वो अच्छे प्यार होते होते हैं हो सकते हैं पर रबीन्द्रनाथ के पात्रों से नहीं लगते...दोष न रबीन्द्रनाथ का है न इन बंगाली मित्रों का .फर्क माध्यम का है और उसके क्राफ्ट का है और गरज ये कि हम सिनेमा और साहित्य को और कलाओं के लिए ये मान लें कि यकीनन ये जिन्दगी से है पर जिन्दगी की छायाप्रति न है और न ही हम में से कोई चाहेगा कि ये हो जाये फिर उनकी खूबसूरती रह जायेगी क्या?
आखिर में सूफियत के दो मिसरे-
रही परदे में न अब वो पर्दानशीं,
एक पर्दा सा बीच में था सो न रहा ...

Saturday, January 17, 2009

मेरा भी है कश्मीर


याद प्योम
एक हफ्ते से मैं कश्मीर मय हूँ हालाँकि जिस काम से वाबस्ता हूँ उसके तहत कश्मीर अंक की योजना मेरे जेहन में तभी से आकार लेने लगी थी जब उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में वहाँ निजाम बदलने की ख़बर आयी ॥कश्मीर में निजाम का सिर्फ़ चेहरा बदला है या वाकई कुछ बदलाव आयेगा ये फैसला तो वक्त ही करेगा पर मेरे हम लोग के कश्मीर अंक की पृष्ठभूमि में ये परिवर्तन था और फ़िर प्रेमचंद गांधी जी के विशेष सहयोग के साथ इस अंक को मूर्त रूप दे पाया।बचपन का कश्मीर याद आ रहा है जब तब लगभग अनजान से कुपवाडा का बशीर गंगानगर के गांवों में शॉलें बेचने आता था मुझे आज भी याद है कि काउ ओप रेतिव की चेतक छाप कॉपी में आखरी पन्ने पे बशीर का पता लिख रख लिया था और जब बड़ा हुआ और कश्मीर और कुपवाडा को जन तब तक चेतक चाप कॉपी किसी रद्दी वाले के यहाँ पहुचकर लिफाफा बन चुकी होगी ॥पर आज भी वो नोस्टाल्जिया का कश्मीर और बचपन का बशीर मेरी यादों में है ... ॥मशहूर डोगरी लेखिका पद्मा सचदेव जी का अपार स्नेह मुझ पर रहा है कश्मीर अंक की योजना के साथ ख्याल आया उनसे लिखवा लूँ पर उनकी तबीयत ठीक नहीं थी फ़िर उनके सुझाव पर चंद्रकांता जी से लिखवाया ,पद्मा जी ने ख़ुद चंद्रकांता जी को फोन करके कहा कि दुष्यंत का फोन आयेगा तो ऐसे प्रकरण मुझ जैसे के लिए ज़मीन से उछलने के लिए काफी हैं.....और चंद्रकांता जी ने मेरे लिए लिखा भी और चमन लाल सप्रू जी से खाने पर लिखवाया भी ....और नाटकीय तरीके से अग्निशेखर जी ने लिखा या कहूं बोला ...जिस दिन वो जम्मू में बैठकर लिखनेवाले थे उन्हें बहुत ज़रूरी काम से दिल्ली आना पडा और फ़िर वे लगातार सफर में रहे पर उनकी कश्मीर पर मुहब्बत और मेरा इसरार या मुझ पर स्नेह कि लिखना और कहना ज़रूर चाहते थे ॥तय किया कि फ़ोन पे मुझे बोलेंगे और मैं रिकॉर्ड करके आलेख तैयार कर लूँगा बुधवार शाम से मुझे जयपुर में दिल्ली की सी सर्दी ने जकड लिया खैर किसी तरह उनके नागपुर से जयपुर की ट्रेन पकड़ने से पहले उन्हें फोन पर पकड़कर मैंने तफसील से बात की ..पर फ़िर मेरी तबीयत अभी संभली नहीं थी ..एक बार सोच लिया यार जाने दो सिर्फ़ चंद्रकांता जी के आलेख को कवर बना लूंगा जब काया ही ठीक नहीं तो किस कायनात की बात कर रहा हूँ ..गांधी जी ने पूछा बात हुई? मैंने कहा कि उन्होंने लिखा तो नहीं पर बात हो गयी उसे ख़ुद ही लिखना है पर मैं लिख नहीं पा रहा हूँ ..खैर मन हुआ और लिखा और इत्तेफकान और उनके यायावरी के मिजाज की वजह से शुक्रवार की सुबह अग्निशेखर शहर में थे वे प्रसिद्द मूर्तिकार हिमा कौल से मिलने आए थे जो यहाँ राष्ट्रीय आयुर्वेदिक संस्थान में अपना इलाज करवा रही हैं ..अग्निशेखर जी उनके लिए कह रहे थे जिन हाथों ने लोहा पत्थर तोडा उन्हें शिथिल देखकर बहुत पीड़ा होती है और ये वाजिब भी है,ये मेरी अग्निशेखर जी पहली मुलाक़ात थी बेहद आत्मीयता और स्नेह से मुलाकात हुई और उनके साथ फिलहाल जयपुर निवासी कश्मीरी गायक वीर कौल से भी ..उनकी पहाडी मासूमियत और बेलागपन..क्या कहने ..दो दिन इन दो कश्मीरियों के साथ और एक पूरा हफ्ता कश्मीर को महसूस करते बीता..पूरे चार पेज के कश्मीर अंक में ..दो कश्मीरियों के साथ में... उन दोनों के लहजे और जुबां में उनके दिल का दर्द साफ देखा सुना सूंघा और महसूस किया जा सकता था ...वीर जी जब अपना एल्बम याद प्योम मुझे दिया और अपने मोबाईल से उस एल्बम का एक गीत सुनाया तो उस आवाज का दर्द मुझे अनबोला कर गया इन दिनों जितना अनबोला रहा हूँ ,शायद ही रहा होऊं..सियासत और आंकडों से इतर संवेदना और संस्कृति के स्तर पर कश्मीर को महसूस करना इस हफ्ते की सबसे बड़ी यादगार घटना हो गयी है और पत्रकारिता के मेरे करियर में इसे याद रखूंगा कल अग्निशेखर जी को जम्मू के लिए विदा करते समय भी मन भारी था और उस वक्त लगभग चुप सा मैं.. ..मैं मौन वक्त के खेल को देख समझने की चेष्टा कर रहा था ...उन्हें ये एहसास नहीं होगा कि इस कश्मीर अंक ने उनके इस फ़ोन और व्यक्तिश सानिध्य के साथ मेरे भीतर कितना और क्या बदलाव पैदा किया है।हालाँकि ये मानता हूँ की यकीनन मुझसे पहले भी कश्मीर पर केंद्रित काम हुए होंगे और मुझसे बेहतर भी होंगे पर यहाँ सिर्फ़ मैं कश्मीर को लेकर अपनी अनुभूतियाँ आपसे बाँट रहा हूँ




Monday, December 15, 2008

बधाई पल्लव



प्रिय मित्र पल्लव को भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता की तरफ़ से राष्ट्रिय युवा साहित्यिक पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है ॥एक प्यारे इंसान की अनथक मेहनत और समर्पण का सम्मान है ये..सफर की शुरुआत भर है..यकीन मानिए..अभी कई गढ़ टूटेंगे .. ये भोर की पहली किरण है ..उजाले अभी होने हैं..रोशनी से आंखे चुंधिया ना जाए कहीं..


फिलहाल आत्मीय शुभकामनाएं भाई पल्लव को

पूरी ख़बर यहाँ है

http://qalam1.blogspot.com/

Tuesday, December 9, 2008

ये काला दिन है जब केवल जाट ही किसान है


बात अपने बचपन से शुरू करता हूँ..अपने अध्यापक पिता से बाल सुलभ जिज्ञासा में पूछा था कि 'पापा गाँव के चौधरी जब ख़ुद खेती नहीं करते खेत तो कोई चौथिया तीजिया पांचिया जोतता है फ़िर ये ख़ुद को किसान कैसे कहते हैं.किसान तो वही होता है ना जो खेती करता है' तब पापा ने कहा था कि 'जो खेती की ज़मीन रखता है वो भी किसान है '
फ़िर हम बड़े हुए इतिहास को ओढा बिछाया तो अंग्रेजों के ज़माने को पढ़ते हुए पता चला कि फार्मर और पीजेंट नाम के दो शब्द होते हैं जो बताते हैं कि ज़मीन किसी की,खेती कोई और करता है.. मेरा जन्म गंगानगर का है सरसब्ज इलाका ..और मेरा ननिहाल हरियाणा में है मेरा ननिहाल देवीलाल की बेटी का ससुराल है लिहाजा ..बचपन में किसान राजनीति के पुरोधा देवीलाल को करीब से देखा है...किसान राजनीति के सबसे बौद्धिक और प्रभावी नेता चरण सिंह के इलाके की लडकी से पहला सर्व विदित और दो तरफा प्रेम हुआ,उसके मुंह और अपने अध्ययन अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि इन दोनों किसान नेताओं ने कभी जाट पहचान की बात नहीं की ,किसान की बात की..उसके नाम पर वोट मांगे..ऐनक का निशान होगा मुख्यमंत्री किसान होगा के नारे अब भी देवीलाल का बेटा देता है ...क्योंकि देवीलाल ने कहा था..'लोक राज लोक लाज से चलता है' तो लोकलाज तो जाति के आधार पे बाँटने की बात को स्वीकार कर ही नहीं सकती है ...
अब मुद्दे की बात पे आ जायें किसी जाति के मुख्यमंत्री बनने की मांग कितनी अलोकतांत्रिक है ...कल लोकतंत्र की जीत की बात पे बल्लियों उछल रहा था मैं ...आज कांग्रेस के उस अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष मुख्यमंत्री पद के उमीदवार को इस बात पे खारिज किया जाता है कि कि जाट ही मुख्यमंत्री होना चाहिए ..जाति की राजनीति का हश्र नाथूराम मिर्धा से राजाराम मील और सुरेश मिश्रा से भंवरलाल शर्मा तक सब का हम देख चुके हैं...
सीमा प्रहरी सैनिक के कल्याण के लिए पद्मश्री पाने वाला कैसे राष्ट्र हित पर जाति हित को बड़ा ठहरा सकता है ये भी सोचनीय है ...एक हद तक भारतीय समाज का चरित्र जातिवादी है और रहेगा पर राजनीति समाज से चले तो परिणाम भयावह होंगे ..कहीं न कहीं इसमें वसुंधरा के बोए बीजों का फल है ..वरना उनसे पूछे कि जब यहाँ जाट को सीएम बनने को लामबंद हो तो अगले चुनाव में गैर जाट मतदाता के सामने कैसे वोट मांगेगे ..? क्या शर्म नहीं आयेगी.? .क्या अपनी सीट भी निकाल लेंगे अगर इस आधार पर सारे गैर जाट उनके ख़िलाफ़ लामबंद हो जाए ..?अगर खेती करने वाले को ही किसान कहा जाए तो बेहतर है किसी दलित तीजिये पान्चिये चौथिये को मुख्यमंत्री के लिए नामित किया जाना चाहिए और इस आधार पर तो बी एस पी के 6 विधायक भी साथ आ जायेंगे...जाति के नाम पे लड़वाने के लिए वसुंधरा को कटघरे में खडा करने वाले ये कोनसा सदभाव फैला रहे हैं ..मेरी समझ से बाहर है ..पर इतना समझ में आता है कि बचपन का पाठ नए अर्थ ले रहा है किसान मतलब सिर्फ़ जाट चाहे वो खेती करे या नहीं..

Sunday, November 23, 2008

एक कहानी यह भी

मेरे दोस्त दिनेश चारण ने अपने ब्लॉग पर कहानी कामायचा प्रकाशित की है॥ अद्भुत कहानी है..ये मैं नहीं कह रहा ,जिसने पढी वही कह उठा..

ऐसी कहानी आप भी पढ़लें.. मुझे शुक्रिया न कहें..या इतनी बेहतरीन न लगे पर आप निराश तो नहीं होंगे..इतना यकीन है..मुलाहिजा फरमाएं ..

Wednesday, October 1, 2008

कैसे चुप रहूँ


आज ये एक खुली प्रतिक्रिया है। मेरे अखबार डेली न्यूज़ की साप्ताहिक महिला पत्रिका खुशबू की संपादक वर्षा जी के विचारों पर। घटना का लब्बोलुआब ये है कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़रदारी ने अमेरिका के उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार सारा पुलिन को प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि आप खूबसूरत हैं और अब जाना अमेरिका आप पर क्यों फ़िदा है पत्रकारों के कहने कि क्या आप हाथ मिलायेंगे ताकि एक फ्रेंडली तस्वीर ली जा सके। तो ज़रदारी साब कहते हैं आप इजाजत दें तो गले भी लग सकता हूँ॥सीएनएन के मुताबिक आंखों देखा हाल ये है- Pakistan’s recently-elected president, Asif Ali Zardari, entered the room seconds later. Palin rose to shake his hand, saying she was “honored” to meet him. Zardari then called her “gorgeous” and said: “Now I know why the whole of America is crazy about you.”

“You are so nice,” Palin said, smiling. “Thank you.” A handler from Zardari’s entourage then told the two politicians to keep shaking hands for the cameras. “If he’s insisting, I might hug,” Zardari said. Palin smiled politely.
पहली बात तो ये कि ये कहीं अकेले में नहीं कहा गया.सारा ने जाहिर तौर पर कोई शिकायत नहीं की कि ये बदतमीजी है ..बहुत सम्मानपूर्ण तरीके से तारीफ़ की गयी है..खैर..दूसरी तरफ़ देखें फतवा आया है..लाल मस्जिद से..फतवा कोई दे.. ग़लत है..व्यक्तिगत सोच की स्वतंत्रता की अस्वीकृति है..वर्शाजी कहती है कि ये हिमाकत है ज़रदारी मियाँ कि जैसे किसी जूनियर आर्टिस्ट ने ऐश्वर्या रॉय को कुछ बोल दिया हो यहाँ तो आलम ये है कि फिलहाल ज़रदारी ऐश्वर्या की तरह हैं..निर्वाचित राष्ट्रपति हैं.यानी एक राष्ट्राध्यक्ष और वो अलास्का प्रान्त की गवर्नर और उप राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार. तो मेरे ख़याल में ये जूनियर सीनियर की बात नहीं है..प्रशंसा के लिए ज़रूरत भी नहीं है..वैसे थोडा पतला करें तो दिलीप साब तो बहुत सीनियर थे जब उन्होंने सायरा से निकाह किया या कि प्यार अलग बात है..चलो एक बार मान लिया...हाँ मजाक में ये कह सकते हैं..ज़रदारी को अपने पद के मुताबिक महिला चुननी चाहिए थी..अपने से हीन महिला को चुनना स्तर के अनुरूप नहीं है..यहाँ मुझे पुरूष लम्पटता के पैरोकार का आरोप भी सहना पड़ सकता है मैं जानता हूँ॥
पर सवाल वो नहीं है..हिंदुस्तान या भारतीय उपमहाद्वीप की बात करें..तो एक बात तो ये कि ये होली की चुहल का देश है.. सन्दर्भ आया तो बताता चलूँ..जो वर्षा जी के इस स्टेंड को मजबूती देगा..कि मैंने अपने परिवार में जबसे होश संभाला सेक्स तो क्या प्रेम को भी निहायत एक वर्जित विषय पाया..विवाह से इतर या पूर्व प्रेम की चर्चा मानो अपराध रही जब मैंने अपने प्रेम और अंतरजातीय विवाह की बात रखी तो ये क्रांति सरीखा था.जो नाकामयाब क्रांति रही..मेरी बहन ने आंशिक प्रेम के बाद विवाह किया..हो पाया क्योंकि जातीय समस्या नहीं थी..और वो बेचारी आज तक 'शर्म' के बारे कह नहीं पाती कि ये विवाह आंशिक प्रेम का परिणाम है जबकि वो दर्शन की विद्यार्थी रही है पीएच डी है और पढाती भी है....
एक और उदाहरण दूँ मेरी एक कजिन के विधवा होने पर उसका दूसरे विवाह का प्रस्ताव मेरे परिवार में घोर अधार्मिक किस्म का अनैतिक कर्म के रूप में देखा गया इस पर मेरे सैद्धांतिक समर्थन को कहा गया कि इसे तो जयपुर या नयी दुनिया की हवा लग गई है..और ज़्यादा पढ़ लिख गया है..पागल हो गया है॥
वर्षा जी खुश हो सकती हैं पर प्लीज़ होल्ड ऑन... मेरे परिवार की इस तस्वीर को मैं नहीं मानता कि हिन्दुस्तान की तस्वीर है..या होनी चाहिए..होना चाहिए का खयाल तो खैर बेमानी है.. और इसीलिए हम इसे भारतीय उपमहाद्वीप की कुल मिलाकर राष्ट्रीय समस्या करार नहीं दे सकते ! अगर हम ये मान ले कि फ्लर्टिंग धीरे धीरे स्वीकार्य होती जा रही है.... तो..फ़िर इसे बुरा कह सकते हैं.? एक बात और देखें समाजशास्त्रीय सन्दर्भों में बात करें तो ये समय चाक चौबंद रिश्तों का समय नहीं है क्योंकि गृहणी का दौर जा चुका है..वर्किंग वीमेन का समय है..संपर्क व्यापक हैं..संवाद व्यापक हैं..चुहल का विस्तार है..हालाँकि इसमें खतरें हैं और वाजिब बात है..जिसका इशारा वर्षा जी करती हैं कि फ्लर्टिंग से रिश्तों की गंभीरता पर असर पड़ रहा है..मान लें कि एक बार पड़ता है.. पर क्या वर्क प्लेस पर बेहद संजीदगी से घुट नहीं जायेंगे!..वैसे भी हम हिन्दुस्तानियों कोस्त्री पुरूष को केवल और केवल किसी न किसी सम्बन्ध के दायरे में ही देखना आता है..दोस्ती यानी पुलिसिया दृष्टि से 'अवैध सम्बन्ध' पर सामान्य नज़र से 'संदिग्ध' और पीछे से आंख दबाने का कारण..बेशर्मी से... जाती तौर पर कहूं तो अब ज़्यादा समझदारी से आपसी समझ से रिश्ते निभाने का समय है.. तो फ्लर्टिंग बड़ा इश्यु नहीं है..इसे यह कहकर जस्टिफाई नहीं करूंगा कि महिलायें भी ऐसा करती हैं..सहकर्मियों या इतर इतनी आजादी लेती हैं..क्योंकि ये कुतर्क होगा..थोडा और विस्तार दें तो कह सकते हैं कि किसी भी कार्य का मंतव्य महत्वपूर्ण होता है..चाहे इसे नापा न जा सके.. फ्लर्टिंग की गंभीरता को या हल्केपन को लाई डिटेक्टर से पकड़ा जाए..बचकाना बात है..है ना..तो चलिए आईये हम संजीदा हो जाएँ.. बेहद संजीदा हो जाएँ.. पर ज़रा रुकिए खवातिनो हजरात! अपना ही उदाहरण ही दूँ..ज़्यादा बेहतर है ....मेरे परिवार में देखा है..बेहद संजीदगी का हश्र भी.प्रेम की बात पर तूफान और विधवा विवाह पर पागल का ठप्पा.. और अगर परम्परा की दुहाई देंगे तो तसलीमा को कैसे डिफेंड करेंगे ...सानिया मिर्जा को?....मकबूल फ़िदा हुसैन को...?
वर्षा जी कहती हैं ज़रदारी का ये विरोध निराधार नहीं है..विरोध का आधार ही ग़लत है कि इस्लामिक परम्पराएँ ये कहती हैं..और ये फतवा है किस से हाथ मिलाओ किस से गले मिलो कब मिलो..
अब क्या आसिफ ज़रदारी बशीर बद्र को याद कर रहे होंगे..कि ये नए(पुराने) मिजाज का शहर (देश) है ज़रा फासले से मिला करो.. दरअसल न ये सवाल नए पुराने का है न जूनियर सीनियर का..ये सवाल फतवे का है..मैं तो कहूंगा कि ज़रदारी बाकी जिन्दगी में जैसे भी हों..भ्रष्ट हों..बेईमान हों..लम्पट हों..पर ये एक्ट तो जाहिरा तौर पर सार्वजानिक और मर्यादित सम्मान पूर्ण है..हमें क्या याद नहीं आता अमेरिका और रूस के राष्ट्राध्यक्ष एक दूसरी की पत्नियों को किस करते हैं वो भी फ्रेंच किस तो.. क्या उसे काउंटर पार्ट्स के बीच का सामान्य व्यवहार कहेंगे..इसे विषयांतर कहकर भी पल्ला नहीं झाड़ सकते...वो फ्लर्ट है!

साफगोई और तार्किक बेबाकी वाले इंसान की वैचारिक गिरावट की आहट सुन रही है..खुदा ना करे ऐसा हो..वर्षा जी सुन रही हैं क्या?

Wednesday, September 24, 2008

प्रभा खेतान का जाना


प्रभा दीदी का जाना मेरे लिए इसलिए खास है कि उनके द्वारा अनूदित किताब ने मेरी जिन्दगी बदल दी थी.ये सन 1998 की बात है मुझे राजस्थान विश्व विद्यालय के इतिहास विभाग में पढ़ते हुए एक दर्शन विभाग के वरिष्ठ मित्र ने अपनी पहली मुलाकात में एक किताब पढने की सलाह दी और वो थी स्त्री उपेक्षिता ..मूल लेखिका सिमोन द बोउवा ..मूल किताब- द सेकिंड सेक्स ..पाठ्यक्रम की किताबों को तजते हुए तकरीबन तीन दिन में भारी मोटी किताब को पढ़ गया..उन दिनों पढ़ लिया करता था इतना..उसके बाद तो मेरी सोच और जिन्दगी वो यकीनन नहीं थी जो उस किताब को शुरू करने से पहले थी मानता हूँ ये सिमोन का जादू था पर जादूगरी प्रभा जी की भी कम नहीं थी..
फ़िर कुछ वक्त बाद उनका उपन्यास पीली आंधी और छिन्मस्ता पढ़ डाले फ़िर रहा नही गया और लेखिका को पत्र लिख दिया ..जवाब आया जिसकी उम्मीद नहीं की थी मैंने..लंबा पत्र मिला खुशी हुई कि उन्हें मेरा ख़त पाके खुशी हुई थी..हमवतनी का ख़त अपनी किताबों पर..लगभग मुग्ध भाव का ख़त.फ़िर ये सिलसिला ही चला ..पर एक बात जो पहले ही ख़त में लिखी .दिल को छू गयी..दरअसल ये मेरी दुविधा का निराकरण था .मैंने कहा कि संबोधन क्या दूँ .उम्र में मां समान है.. और लेखन के कारण श्रद्धानवत हूँ ही ..मेडम कहना औपचारिक लग रहा है ..नम लेकर बात करना बदतमीजी तो उन्होंने कहा कि प्रभा दीदी कह सकते हो और आखिर में 'सस्नेह प्रभा दीदी' के शब्द आज भी मेरे मन पर अंकित हैं..
फ़िर फ़ोन पर अनेक बार बात हुई उन्हें खुशी हुई कि उनके अनुवाद से प्रेरित होकर महिला अध्ध्ययाँ में पीएच डी कर रहा हूँ..वो इस बात पे भे बहुत खुश थी कि मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा हूँ और स्त्री विमर्श में इतिहास में काम कर रहा हूँ.. जब मैंने अपने विषय से जुड़े दो प्रकाशित शोध आलेख भेजे थे तो उन्होंने उन्हें शब्दश पढ़कर जिज्ञासाएं रखी थीं..उनके दार्शनिक प्रश्नों ने मुझे चोंकाया और मार्गदर्शित किया था ..
वो बहुत उत्सुक थीं कि छप के आने दो ज़रूर पढूंगी ..वो मेरा शोध किताब के रूप में आने के लिए अभी प्रकाशक के पास प्रकाशनाधीन है काश उन्हें ये सुख दे पाता..पिछले साल जब तसलीमा नसरीन जयपुर आयीं थी तो प्रभा दीदी के पुत्र संदीप भूतोडिया आए तो उनके साथ ही तसलीमा से मिला तो प्रभा जी के बारे में संदीप और तसलीमा जी से बातें हुई थीं ..अज तक रूबरू मिलने का मोका नहीं मिला पर किसी के विचारों से मिल के लगता ही नहीं कि उनसे मिला नहीं था.. हर बार फोन पर वही अपनापन..स्नेह और एक सवाल इन दिनों क्या पढ़ रहे हो..
उनका जाना बहुत अस्वाभाविक लग रहा है ..सोचा था उनके हाथों मेरी शोध पुस्तक का लोकार्पण होता...हर बार जब भी फोन करता था तो ये ज़रूर पूछती थीं कि कब आ रही है!
अब वो पूछना नहीं होगा.. मेरे शोध की प्रथम प्रेरणा पुस्तक की अनुवादिका का अवसान मेरे लिए बहुत बड़ा झटका है..

Tuesday, September 2, 2008

अलविदा कैसे कहें आउटलुक हिन्दी को...



आउट लुक का सितम्बर अंक आ गया है...गौर करें सितम्बर अंक..नज़र कई देर ठिठकी रही सितम्बर पर..समझ गए होंगे मैं क्या कह रहा हूँ..बस इतना सा कि आउट लुक हिन्दी अब साप्ताहिक नहीं रही मासिक कर दी गयी है....आलोक मेहता जी के नयी दुनिया चले जाने के बाद इस परिवर्तन की उम्मीद नहीं थे..हालाँकि आशीष ने अपने ब्लॉग हल्ला पर ऐसा संकेत दिया था..मुझे अफवाह लगी थी ..अपने भीतर एक जलजला उठते पाया ॥


साहित्यिक पत्रिकाएं न चले ये किसी हद तक समझ में आता है॥मैंने भी एक साहित्यिक त्रैमासिकी के चार अंक निकाले हैं तो कुछ ख़बर है..किन स्थितियों का सामना करना पड़ता है..मसलन लेखक पत्रिका और सम्पादक को अभूतपूर्व और महान बतादेंगे पर एक प्रति खरीद कर पढने में तकलीफ होती है वो तो फ्री में ही मिलनी चाहिए..अंक ना आए जिसमे उनकी रचना शामिल है तो पचास बार फ़ोन करलेंगे पर अंक ना आने की मजबूरी न समझेंगे ना जान ने की चेष्टा करेंगे.. हंस कथादेश की उपस्थिति आश्चर्यजनक है ही॥अब तो परिकथा भी उन्हें टक्कर देने लगी है चाहे दोमाही है फ़िर भी..खुदा करे ये सिलसिला कायम रहे..


फ़िर साप्ताहिक की बात पर लोटें ...हिन्दीकी साप्ताहिकी चलना दूभर हो गया है क्या ..दिनमान धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान सहारा समय के बाद अब आउट लुक भी...अपनी आँखों के सामने जैसे एक पत्रिका ..आउटलुक यानी समग्र दृष्टिकोण को मरते देख रहा हूँ...


पत्रकारिता के पेशे में हूँ..और जब आउटलुक शुरू हुई थी शायद अक्टूबर २००२ की बात है ..उस वक्त से इंडिया टुडे को खरीद कर नहीं पढा ...छ साल में ये दिन आ गया ..जबकि हिन्दी बुद्धिजीवियों में चर्चा रही है मैगजीन की ..खैर बहुत बार दोहराए जाने वाले बशीर के शेर को फ़िर गायें..कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी..वरना यूँ कोई बेवफा नहीं होता...

एक सवाल ज़रूर जेहन में उठता है कि इंडिया टुडे तकरीबन १०पेजों के साथ क्षेत्रीय संस्करण निकाल पा रहे हैं !!!!

आउटलुक के अवसान की इस पूर्व संध्या पर क्या कहूं ..मन भारी है

दुआ करें कि ऐसा ना हो ..आमीन..आउटलुक फ़िर से साप्ताहिक हो जाए..

Tuesday, August 26, 2008

अब के हम बिछड़े तो....



अहमद फ़राज़ नहीं रहे .....


यकीनन एक बड़ा शायर ..हिन्दुस्तान का या कि पकिस्तान का....नहीं पूरे बर्रे सगीर का ...नहीं ...अदब की दुनिया का एक बड़ा शायर ..लफ्जों से बगावत करता ...

हिन्दुस्तान और पकिस्तान दोनों ही मुल्कों में एक से प्यारे शायर ..वे भारत लगातार आते रहते थे और खास तौर पर बनारस से उनका खासा लगाव था यहां के मुशायरो में वे लगातार हिंदुस्तान और पाकिस्तान की एक जैसी विरासत का हवाला देते थे और एक लंबी मुलाकात में उन्होंने यह भी कहा था कि जिस दिन भारत और पाकिस्तान का संगीत और साहित्य मिल जाएगा उस दिन फौजों की जरूरत नहीं रहेगी। अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाले फ़राज़ साब के बारे में दिलचस्प बात यह है कि हिंदुस्तान की फिल्में बहुत पसंद करने के बावजूद कई बार कहने पर भी उन्होंने भारतीय फिल्मों के लिए कोई गीत नहीं लिखा। हालाँकि उनकी कई गजलें फिल्मों में ली गई और खासी मकबूल हुई थी।

बतौर अकीदत कुछ शेर उनके गुनगुना लें ...



अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले

जैसे तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले

दूंढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती

ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें


तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा

दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें।

या कि एक दूसरी ग़ज़ल के कुछ शेर --

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाये हम

यह भी बहुत है तुझको अगर भूल जाएँ हम

सहरा ऐ जिन्दगी में कोई दूसरा न था

सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदायें हम

इस जिन्दगी में इतनी फरागत किसे नसीब

इतना न याद था कि तुझे भूल जाएँ हम

तू इतने दिल जुदा तो न थी ऐ शबे फिराक

आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएं हम

वो लोग अब कहाँ हैं जो कल कहते थे फ़राज़

है है खुदा न कर्दा तुझे भी रुलाएं हम


मरासिम- सम्बन्ध ,फरागत-चैन ,दिल जुदा -उदास दिल,शबे फिराक -जुदाई की रात,खुदा न कर्दा -खुदा न करे



Saturday, July 26, 2008

उदय जी को बधाई


मेरे प्रिय कथा लेखक उदय प्रकाश जी को कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार देने की घोषणा हुई है ॥ हाल में उन्हें वनमाली पुरस्कार भी दिया गया था...उस प्रोग्राम के समय मेरा दोस्त अभिषेक उनकी कहानी तिरिछ की नाटकीय प्रस्तुति के लिए भोपाल गया था..उसने आके जिस रूप में ये मुझसे बांटा..मुझे बहुत खुशी हुई थी...इस से पहले जयपुर में तिरिछ की प्रस्तुति पर उदय जी स्वयं उपस्थित थे और अभिषेक के निर्देशन में जफ़र खान की उस एकल पेशकश पर उदय जी लगभग अभिभूत हो गए थे..
कलख़बर मिली उनको इस उनको इस पुरस्कार की ...
अब इस मौके पर क्या कहूं ...खुश हूँ..लगता है देर आयद दुरुस्त आयद..या फ़िर ये की तमाम मठाधीशों और तथाकथित आलोचकों के दुराग्रहों और 'सुप्रयासों 'के बावजूद अच्छा लेखन गुणवत्ता और पाठकीय प्रेम और स्नेह के कारण स्वीकारा जा रहा है ...वो हमारे समय के हिन्दी के सबसे सजग सफल और संवेदनशील कवि कथाकार हैं ये कहते हुए कोई डर नहीं है...मुझे ये भी पता है मेरे ऐसा कहने पर वो मुझसे नाराज़ भी हो सकते हैं....फ़िर भी ...

एक कविता उनकी इस मौके पे आपसे बाँट रहा हूँ...


सहानुभूति की मांग


आत्मा इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मांगती है
पुण्य मांगता है पसीना और आंसू पोंछने के लिए
एक तौलिया
कर्म मांगता है रोटी और कैसी भी सब्जी
ईश्वर कहता है सिरदर्द की गोली ले आना
आधा गिलास पानी के साथ
और तो और
फ़कीर और कोढ़ी तक बंद कर देते हैं
थक कर भीख मांगना
दुआ और मिन्नतों की जगह
उनके गले से निकलती है
उनके ग़रीब फेफड़ों की हवा
चलिए मैं भी पूछता हूं
क्या मांगूं इस ज़माने से मीर
जो देता है भरे पेट को खाना
दौलतमंद को सोना हत्यारे को हथियार
बीमार को बीमारी] कमज़ोर को निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
और व्यभिचारी को बिस्तर
पैदा करो सहानुभूति
मैं अब भी हंसता हुआ दिखता हूं
अब भी लिखता हूं कविताएं
(१९९८
)

Saturday, July 5, 2008

तेरी खुशबू से सारा शहर रोशन



इतने दिनों बाद फ़िर से मुखातिब हूँ ..इस बीच बड़ी बात ये हुई है कि तीस जून गुज़री ...मेरी जिन्दगी में तीस जून इस बार इस लिहाज से ज़्यादा ख़ास थी कि ख़ुद मैंने ये तय किया कि इस दिन को इतना याद करूं कि भूलने ना पाऊं...तीस जून २००६ से २००८ तक इस दिन के मायने बहुत बदले हैं....ये जाहिर तौर पर निहायत जाती मसला है पर ...

तो इस बार शहर को एक बार फ़िर से देखा महसूस किया... ख़ास जगहों को महसूस किया ..हवाओं की खुशबू को देखने और दृश्यों की सुन्दरता को सूंघने की कोशिश की ,

कई घंटे बिरला मन्दिर के प्रथम मंजिल वाले छोटे से घास के मैदान में तकरीबन दस अलग अलग बिन्दुओं पर अलग अलग एंगल में बैठ कर ना जाने क्या क्या कुछ याद किया॥

डेढ़ घंटा बुक वर्ल्ड के सामने केन्टीन में गुजरा..टिफिन में से खाना खाया ...

राजापार्क की उस ज्यूस शॉप से ज्यूस पीना नहीं भूला ...

वहाँ उस परचून वाले अंकल से बिना ज़रूरत कई चीज़ें उठा लाया...

बुक वर्ल्ड मेंजान बूझकर बिना किताब लिए वक्त गुजारा बिना प्रमोद जी और रजनीश जी बात किए चुपचाप... ख़ुद से लगातार बात करते... चुपचाप...

शहरकी सड़कों पर बिना काम भटका....न्यू गेट से त्रिपोलिया तक चौडा रास्ता पैदल घूमा ...

रात को स्टेच्यु सर्किल बैठा...जैसे आधी रात किसी को सिंधी केम्प छोड़ना है ,उस वक्त तक समय गुजारना है ......फ़िर से टिफिन से खाना खाया वहाँ बैठ कर और फ़िर नेस केफे के स्टॉल से कॉफी पी..हमेशा की तरह अच्छी नहीं लगी..बनावटी मुस्कराहट के साथ पूरी की,जैसे कोई देख रहा हो...फ़िर खिसियानी हँसी चोरी पकडी जाने के बाद और वही स्वर कानों में - 'जब अच्छी नहीं लगती तो क्यों सिर्फ़ कंपनी देने के लिए पीते हो '.....कई देर तक गूंजता रहता है...फ़िर स्टेशन के पास वाले उस ढाबे से बिना ज़रूरत स्टफ्फड आलू की सब्जी खरीद लाया जैसे अभी कहीं यात्रा पर निकल रहा होऊं .......

सोचता हूँ क्या यूँ अपने ब्रेक अप के दिन को याद करना बेमानी और अजीब नहीं है ..है तो है ...

कुछ दोस्त कहते हैं दो साल हो गए पता ही नहीं चला यार ...

मुझे पता है दो साल दो युग से गुजारे हैं....हर दिन एक उम्मीद में ढला है हर सुबह एक आस में जागा हूँ ...

गालिब कभी नहीं भूलते मुझे कहते हुए -

' मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का

उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले '

Monday, June 23, 2008

जियो गौरव !!!




गौरव सोलंकी एक युवा कविता का उम्दा नाम है,पर इतनी चौंकाने वाली कविता भी उसने लिख दी होगी ,ये मेरे लिए अचरज की बात है..उस पे बहुत प्यार लाड आया है॥

आप से बाँट रहा हूँ॥

मुलाहिजा फरमाएं और इस बालक को दुआएं और आशीर्वाद दें...


अधूरा नहीं छोड़ा करते पहला चुम्बन



अधूरा नहीं छोड़ा करतेपहला चुम्बन,

जब विद्रोह करती हों,

फड़फड़ाती हों

निर्दोष होठों की बाजुएँ

नहीं बना करते अंग्रेज़,

नहीं कुचला करते उनकी इच्छाएँ

सन सत्तावन के गदर की तरह।

ऊपर पंखा चलता है।

आओ नीचे हम

रजनीगन्धा के फूलों से

छुरियाँ बनाकर

काट डालें अपने चेहरे,


तुम मेरा

मैं तुम्हारा

या तुम मेरा,

मैं अपना!सिपाहियों को मिला है

आदेश भीड़ को घेरने का,

बेचारे सिपाहियों ने चला दी हैं

बेचारी छुट्टी भीड़ पर

बेचारी छोटी छोटी गोलियाँ।

फिर मत कहना

कि अपनी मृत्यु का दिन

मालूम होते हुए भी

मैंने नहीं किया था

तुम्हें सावधान कि

तुम अपना खिलंदड़पना छोड़कर

सोच सको

भावुक होने के विकल्प के बारे में भी।

क्या पता

कि अधूरे छूटे हुए पहले चुम्बन

बन जाते हों आखिरी

इसलिए मन न हो, तो भी

अधूरा नहीं छोड़ा करते

किसी का पहला चुम्बन।

नब्बे साल बाद सच होते हैं

मंगल पाण्डे के शाप।

Saturday, June 21, 2008

अपने शहर की याद में...

मेरे दर्द के दरिया पर मिली प्रतिक्रियों से अभिभूत हूँ.कहते हैं बाँटने से दर्द हल्का हो जाता है ,यह हो भी रहा है..उन स्मृतियों की खिड़कियों में झांकना यूँ तो आँख के कोरों को भिगोना ही है पर ये मीठे दर्द की तरह है,ये यादें एक थाती की तरह है,वो शहर वो बचपन....
मेरा वो स्कूल डी ऐ वी स्कूल ..नंवी से बारहवीं तक के चार साल ऐसा स्कूल जहाँ सिर्फ़ लड़के थे..लड़कियों को निहारने को लंबा जाना पड़ता था ,अपनी उस नयी हीरो रेंजर साईकिल पर लड़कियों के स्कूल के रस्ते से होकर जाना..,,विशेषकर सरकारी गर्ल्स स्कूल की बालिका को देखने के लिए एक नुक्कड़(पूर्व मंत्री मरहूम प्रो.केदार के घर का नुक्कड़ ) पर साईकिल पर सवार सवार लगभग ६० डिग्री झुकाकर पाँव नीचे लगाकर चार बजकर अट्ठावन मिनट का इंतज़ार, मैं ये वक्त इसलिए नहीं भूलता कि ये मेरा पहला ' क्रश ' ,या पहला प्यार (!)था...कि शाम की पारी में उसके स्कूल था और मैं अपनी छुट्टी के बाद एक झलक के लिए उस वक्त का इन्तेज़ार करता था,वक्त भी ऐसा कि घड़ी मिला लें ,हालांकि हुआ कुछ भी नहीं -'जो बात दिल में थी दिल में घुट के रह गयी ,उसने पूछा भी नहीं और मैंने बताया भी '.....झलक तक महदूद रही,हिम्मत ही नहीं पडी
जब हिम्मत हुयी तब तक बहुत कुछ बदल चुका था..और चीज़ें दिल की बजाय दिमाग से तय होना शुरू हो गयीं कम से कम उन मोहतरमा की तरफ़ से..तब करारा थपड नुमा जवाब मिला जो उन्होंने अपनी सहेलियों के सामने दिया- 'इन साहब को मैंने तो कह दिया आप भी कह दें कि ज़रा आईना देख लें...फ़िर क्या था रफी के गाने 'तू जिसे चाहे तेरा प्यार उसी का हक है' को गाते हुए जिन्दगी में आगे बढ़ लिए..ये सोचते हुए कि चलो लेखक को अपनी जिन्दगी में सुनाने को किस्सा तो मिल गया.उसके बाद फ़िर वो मोहतरमा मुझे कई साल बाद सादुलपुर चुरू में सवारी गाडी में यात्रा करते हुए मिली ,जो हिसार से आ रही थी , दो बच्चे ,मध्यमवर्गीय जीवन स्थितियों के बीच पसीने से तरबतर ,एकबारगी उसे पहचाना नहीं फ़िर उसकी उन आँखों ने याद दिला दिया...
हालाँकि उसने मुझे नहीं देखा..अच्छा ही हुआ ..मेरा देखने का भाव अलग था..एक मां को देखा जो अपने बच्चे को पानी पिलाने के लिए ट्रेन से उतरी है जल्दी में कि कही ट्रेन ना चल दे , ये दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे वाली यूरोपियन ट्रेन नहीं थी ....
मुझे उस पर इस रूप में देखकर पहले से ज़्यादा प्यार आया...
हम आप अपने शहर को यूँ भी याद कर सकते हैं ,
है ना.....

Monday, June 16, 2008

अपने शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह

आज फिर अपने शहर से लौटा हूँ ,यूं तो पिछले १४ साल से बीच के कुछ अंतराल अगर ना निकालूं तो जयपुर में हूँ पर अपने शहर से कभी अलग नहीं हों पाया ,मेरा शहर यानी गंगानगर यूं तो उस शहर से भी वाबस्तगी कोई बहुत लम्बी नहीं रही ,महज पाँच साल ..उस से पहले यहाँ वहाँ जहाँ पिताजी पढाते वहाँ वहाँ उत्तरी राजस्थान की जिन्दगी के पहलुओं को बचपन की आँख से देखा समझा ,जितना समझ सकता था ,यायावरी शायद तभी से खून में शामिल हों गयी ,
इस बार सिर्फ़ दो दिन के लिए गया आज सुबह लौटा हूँ गालिबन उसी ट्रेवल्स की बस से जिस से १९ जुलाई १९९४ को पहली बार जयपुर आया था ,पर इन १४ सालों में कितना कुछ बदल गया, लोग बदले , सपने बदले, जीने के तौर तरीके बदले॥ और मैं भी बहुत बदल गया नहीं बदली नहीं छूटी तो उस शहर की याद जो शायद अब नोस्टेल्जिया में है और रहेगा, शहर जो अब स्म्रतियों में है , वहाँ वाकई वजूद में नहीं है, जैसे मेरा गाँव और वो तमाम चीज़ें अब उस तरह से नहीं हैं..हालांकि वक्त के साथ चीज़ें बदलती हैं और बदलनी भी चाहिए..ये कहते हैं कुदरत का नियम है ॥ मेरे दादा पंजाब के गाँव पंचकोसी से यहाँ बीकानेर राज में पटवारी होकर आए और यहीं बस गए ..बताते हैं तीन पीढी पहले मेरे पुरखे चुरू के किसी गाँव सोम्सीसर से पंचकोसी गए थे ,ठहराव नहीं है। शायद जिन्दगी रुकने का नाम है भी नहीं ,ये भी संक्रमण का दौर है,मैं फिर नयी ज़मीन की तलाश में हूँ, क्या मिल चुकी है ख़ुद मुझे पता नहीं ,पता है भी तो यकीन नहीं ..
अपने शहर से अपनी आँखों में मां पिता के निरंतर थके से दो चेहरे लाया हूँ ,पंजाबियत की खुशबू वाला शहर है तो गुरदास मान,हरभजन मान के गीतों की एम् पी ३ लाया हूँ ,दोस्त अब वहाँ मिलते नहीं अपनी जिन्दगी में गुम है ,इसलिए उनसे शिकायत भी नहीं ,शिकायत नहीं ये भी शिकायत की वजह हों सकती है ,कि क्यों नहीं है ..ये दर्द का दरिया है..जो अभी बहेगा ॥
गुलाम अली की ग़ज़ल का मत्तला गूंजता रहा -हम तेरे शहर में आए है मुसाफिर की तरह ,पर बदले हुए मिसरे के साथ -
हम अपने शहर में आयें हैं मुसाफिर की तरह....

Tuesday, June 10, 2008

और वो पकडी गई ! ! ! !

चल तो पड़े हो राह को हमवार देखकर !!!

आज ऑफिस के लिए आते वक्त एक हादसा पेश आया ,घर से लगभग १२ किलोमीटर की यात्रा करके ऑफिस पहुँचना रोजाना का काम है, ये यात्रा मेरे लिए हमेशा ख़ास होती है,कितने ही ख्यालों और अनुभूतियों की मोबाईल गवाह। आज जब गोपालपुरा फ्लाई ओवर के ग्रीन लाईट पार कर रहा था, विपरीत दिशा से आती एक सेंट्रो में सवार कन्या को रेड लाईट पार करते हुए पकड़ लिया गया ,आपको लगेगा ये तो होना ही चाहिए इसमें कोनसी बड़ी बात है, जी ,है बिल्कुल है ,मैं यहाँ लिंग असमानता की बात कर रहा हूँ, लडकियां और महिलायें खुश हों,लिंग समानता की बात का केवल एक ही अर्थ महिलाओं के हक में बात करना नहीं हों सकता ।

ये इत्तेफाक भी हों सकता है पर जैसे कई अपवाद मिलकर नियम बन जाते हैं वैसे ये इत्तेफाक भर नहीं है ,कि आज तक मेरे सामने किसी लडकी या महिला का चालान नहीं हुआ ,उन्हें महिला होने का अलिखित फायदा मिल जाता है, दोपहिया वाहन पर तीन लडकियां हों या बिना हेलमेट कोई युवती दौड़ी चली जा रही हो, इन स्वीट बिल्लियों को देखकर ट्रेफिक वालों को कबूतर बनते देखा है,क्या मजाल कि कोई लड़का या पुरूष उनकी नज़रों से बच जाए, उसे अपनी दोपहिया दौडाकर अगली लाईट पर पकड़ने से भी नहीं चूकेंगे॥

मित्रो ये लिंग असमानता आप बहुत जगहों पर मुख्तलिफ फॉर्म में देखेंगे ,पढाने के पेशे में रहा हूँ और अब पत्रकारिता में हूँ ,महसूस किया,सुना है कि डांट का लहजा भी अगर बौस की बात करें तो अलग मिलेगा , सॉफ्ट कॉर्नर कई बार सिर्फ़ कोर्नर ना होकर कमरा हो जाता है.. मसलन बौस अगर एक ही तरह की गलती के लिए डाट ता है तो पुरूष के लिए शब्द कुछ ऐसे होंगे -' ऐ मिस्टर काम करना है तो ढंग से करो ,मेरे सामने ऐसा नहीं चलेगा,ये भूल नहीं ब्लंडर है,कम्पनी ऐसे लोगों को फायर करते देर नहीं लगाती ' और सामने मोहतरमा हों तो -'मेडम ज़रा देख लेते , आप जानती हैं , ऐसे तो मुश्किल हो जायेगी कम्पनी को,मेडम कम्पनी को आपकी जरूरत है, आप बहुत प्रतिभाशाली हैं ,ऐसी भूल आपसे फ़िर कैसे हो जाती है, मेडम थोडा ख्याल रखें' लिहाजा आज ट्रेफिक वाले सज्जन का उन भोली सूरत वाली गोगल में अपनी आँखें छुपाये और चौपहिया में अपने हाथों को प्रदूषण से बचाने को गलव्ज से ढकने वाली कन्या को रोका जाना प्यारा लगा ,छद्म इच्छा मान लें पर ऐसा है तो है ,अगर उसके बाद उसे मुस्कराहट और मीठी मनुहार के बाद बिना चालान के छोड़ दिया गया हो तो भी ..जिसकी बहुत संभावना है ,
आपसे अनुरोध इस लिंग विभेद पर भी नज़र डालें, सोचें...

Tuesday, June 3, 2008

बाजी इश्क की बाजी है


हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

बहुत दोस्तों ने बहुत बार कहा पूछा, टोका, गालियाँ दी कि आखिर मैंने ब्लॉग से उनके शब्दों में 'इतनी खूबसूरत और प्यारी कवितायें ' क्यों हटा दीं जो मेरी अपनी थीं ,आज वही बात कर रहा हूँ , कहना चाह रहा हूँ पता नहीं सही तरीके से कह भी पाउँगा या नहीं ,खैर चलिए ..कोशिश करता हूँ पहला और इतिहास के विद्यार्थी के नाते कहूँ तो तात्कालिक कारण तो ये था कि लगा कि नितांत व्यक्तिगत अनुभूतियों को क्यों ऐसे बाँट रहा हूँ ,हालांकि यहाँ बड़ा विरोधाभास मौजूद है कि अगर उन अनुभूतियों को कविता की शक्ल मिल गयी है तो मुझे क्या अधिकार है उन्हें अपने पास छुपा के रखने का और फिर मैं ये चाहता ही क्यों हूँ ...जिन्दगी विरोधाभासों से लबरेज है कम से कम मेरी तो है ही ...
पर यकीनन ये अकेला कारण नहीं है ,अगरचे मानता हूँ कि ज्यादातर चीज़ें एक कारण पर टिकी होती हैं चाहे बोद्ध और सांख्य दर्शन वाले मुझे दबाके गालियाँ दें पर मुझे लगता है किसीबात को और ज़्यादा मजबूती से जस्टिफाई करने के लिए कई कारण ढूंढें जाते हैं ,मेरे कवितायें हटाने के दूसरे कारणों में है -एक तो ये कि पहले दिन से रचना चोरी का भय रहा है ब्लॉग पर से और वो हुआ भी..मेरी कविता पंक्ति को नारे की तरह इस्तेमाल करना बिना क्रेडिट के बड़ा दुखद लगा ,मैं कोई गालिब तो हूँ नहीं कि कोई गाए -'मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का 'और लोग चिल्ला पड़े अरे ये तो ग़ालिब का है ना याकि क्यों फेंक रहे हों ये तो गालिब का है ,मुझ अदने से आदमी की क्या औकात !
और एक वजह ये समझ में आती है कि ब्लॉग को अपने विचार की भडास का ही माध्यम बनाऊं और क्योंकि बड़े लोग अगर ब्लॉग पर कविता लिखें तो वाह और मुझ जैसे लिखे तो ये कि अगर असफल कवि ब्लॉग पर कवितायें लिख रहें हैं....सस्ती लोकप्रियता के लिए....चाहे इसे मेरा हारना कहें कि उनके कहने पर मैं कवितायें हटा रहा हूँ पर ...मैं जब लोग मुझे हारा हुआ कहते हैं ,चिल्लाकर कहना पसंद करता हूँ कि हाँ हार गया हूँ...कई बार कोई कहे उस से पहले ही ...क्योंकि यही हार मेरी जीत का रास्ता बनाती है ॥
आमीन

Friday, May 30, 2008

रेत से उठती आग


राजस्थान बिहार हो गया है ,इसलिए नहीं कि बीमारू राज्यों में और पिछड़ रहा है,राजस्थान यूपी हो गया है इसलिए नहीं कि मायावती अपने हस्तमेघ यज्ञ की तैयारी कर रही हैं ,आरक्षण का सुंदर सपना एक कुरूप संसार का निर्माण कर रहा है ,हम जातीय संघर्ष के कगार पर खड़े हैं ,गुर्जरों को आरक्षण की घोषणा होते ही मीणा युद्ध की दुन्दुभि बजा देंगे ,तीन दिन पहले ठीक ग्यारह बजे जब दफ्तर में अपना काम शुरू कर रहा था एक एसएमएस ने विचलित कर दिया ,एक अज्ञात नंबर से था वसुन्धरा राजे की प्रशंसा करते हुए गुर्जरों के आरक्षण के ख़िलाफ़ और उनके 'देशद्रोहात्मक 'कार्यों की आलोचना करते हुए कहा गया कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त..यानी ...इस नासमझी को क्या कहें जब हमें जातियाँ परस्पर दुश्मन नज़र आने लगी हैं॥

आरक्षण से बात शुरू करें जब 1932 में मेकडोनाल्ड अवार्ड जिसे कम्युनल अवार्ड भी कहा गया , के तहत सिख, मुस्लिम और दलित आरक्षण की बात आयी तो गांधी बाबा ने पूना जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके बाद भीमराव अम्बेडकर और गांधी के बीच पूना समझौता हुआ गांधी बाबा ने कम्युनल अवार्ड से ज़्यादा आरक्षण दलितों को दिया पर मूल भावना ये रही की हमें अंग्रेज क्यों लड़वायें या हम आपस में तय कर लें.यानी सोहार्द कायम रहे ,चाहे इस बात के लिए गांधी बाबा की आलोचना कर लें कि वो जन्म आधारित जाति व्यवस्था के समर्थक है पर जातीय सौहार्द तो उनके दर्शन के मूल में है ही ।

चलिए अब इतिहास से वर्तमान में आ जायें मंडल से जो सकारात्मक मिला जो मिला पर आग लगी सब झुलसे पर राजस्थान कमोबेश अछूता रहा ,अब बात करें जाट आरक्षण आन्दोलन की ,सामाजिक आर्थिक आधार पर जाटों का बहुत बड़ा वर्ग सरकारी मदद का हक़दार था और है ,जिस तरह बाकी जातियों में भी है पर जो मुहिम शुरू हुयी उसके नतीजे जाट आन्दोलन के मुखियाओं विशेषकर माननीय ज्ञानप्रकाश पिलानिया ने भी नहीं सोचे होंगे ,

किस तरह सत्ता को विचलित कर आरक्षण हासिल किया जाए और उसके लिए किसी भी हद तक चले जायें पर इस रास्ते में आपस की लड़ाई को कैसे रोकें..हित तो टकरा रहे हैं यकीनन टकरा रहे हैं ,जाटों की राजपूतों से एक परम्परागत टकराव की स्थिति रही है ,राजपूतों के आरक्षण आन्दोलन के मूल में भी ये बात रही होगी ,ब्राह्मण भी कूद पड़े..पर आरक्षण का लड्डू किस किस को मिले ,एस टी का लड्डू ही फिलहाल झगडे की जड़ है, ओ बी सी के लड्डू के लिए मूल ओ बी सी और जाटों के बीच का द्वंद्व भी याद कर लीजिये।

अब देखिये ना सरकार भी दोराहे पे है या कहे इधर कुआ उधर खाई ,गुर्जरों को दे तो मीणा नाराज़ ,नहीं दे तो गुर्जर नाक में दम किए हुए ही हैं ,इस पहलू को नज़र अंदाज़ कर दें जो मुमकिन नहीं ,तो ज़रा सोचिये राजस्थान का क्या हश्र होना है एक शांत प्रदेश की छवि तो बम धमाकों से क्षत विक्षत हो चुकी है ,और जत्तीय संघर्ष की यूपी बिहार की तथाकथित छवि का संस्करण बनना क्या हमे चुपचाप सहन करना चाहिए,देखना चाहिए,क्या आने वाले समयों में जातीय चेतना और नहीं बढेगी , अल्पसंख्यक जातियों में असुरक्षा का बोध नहीं जागेगा जैसा मुस्लिमों में गाहे -बगाहे सुनने को मिलता है और फ़िर लामबंद होने को 'हमारी जाति खतरे में है' के नारे बुलंद नहीं होंगे..आमीन नहीं कहूंगा ,खुदा ना करें ऐसा हो क्योंकि ये दर्द और आशंका एक राजस्थानी होने के नाते नहीं है क्योंकि हमारे आसपास कितने ही लोग हैं जो राजस्थान के अमन और शान्ति के माहौल के कारन यहाँ खुश हैं चाहे वे मूलत कहीं और से हैं , एक बार यहाँ आए और फ़िर यहीं के होकर रह गए तो फ़िर जन्मना और कर्मणा दोनों रूपों में राजस्थानी लोगों के चिंता करने का समय है,मुझे कुछ बरस पहले का एक कथन याद आ रहा है जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के वर्तमान अध्यक्ष सुखदेव थोराट का है ,जब वे इस पद पर नहीं थे , उन्होंने एक लेख में कहा था कि 'भारत में आर्थिक स्तर पर जाति व्यवस्था ख़त्म हो चुकी है और सामाजिक स्तर पर इसका ख़त्म होना लगभग नामुमकिन है'..राजस्थान के हालत भी यही जाहिर करते हैं ना सिर्फ़ कायम है और रहेगी, इसमें बुराई भी नहीं है पर सवाल तो आपसी सौहार्द का है, क्या उसे हम बचाए रख पाएंगे!.

Wednesday, May 28, 2008

माजरत के साथ


एक तो चेन्नई वाला किस्सा पूरा नहीं कर पाया हूँ और फिर दूसरे किस्से बन ने शुरू हों गए ,जिन्दगी है ही ऐसी कमबख्त ..जितना समझने और सुलझाने की कोशिश करता हूँ उतनी ही उलझती जाती है ,समझ से परे होती नज़र आती है ,महान या कहूं भयंकर वाली कुंठा के दौर में हूँ ..अवसाद है पीड़ा है .घुटता मन है -बालमन ,उसके हठ हैं ,राजेश रेड्डी की ग़ज़ल का मिसरा याद करूं तो 'या तो इसे सब कुछ ही चाहिए या कुछ भी नहीं',
...न कर पाने ,ना हों पाने की छटपटाहट है ..जो हो रहा है उसे ना रोक पाने की छटपटाहट है ..जिन्दगी एक मुअम्मा हो गयी है जावेद अख्तर साहेब को याद करते हुए कहूं तो॥


कितना कुछ गड्ड मड्ड सा लगता है ,कई बार बनावटीपन से कोफ्त होती है तो कई बार ये बड़ा सुहाना लगता है ,सच्चाई कई बार बहुत गर्व करवाती है कई बार कुंठा में डालती है ,तर्क की दुनिया में जीते हुए तर्क की सबसे बुरी बात बेहद परेशान करती है कि उसे दोनों तरफ़ उसी प्रकार खडा किया जा सकता है ,किया भी है ..फिर लगता है कि तर्क अहमियत क्या है ..आखिर होना क्या चाहिए ,दिल की सुनें तो तर्क को भूल जायें या कि तर्क को मानें तो दिल को..

Saturday, May 17, 2008

तसलीमा नसरीन की एक कविता





Who cares if I am sitting here alone
No one and I don't give a damn
Because I am what I am
I am alone,I am no one
Just an eccentric minority
by himself on a bench
Doing nothing with
everything on my mind
And still the world around
me continues to go by
While I linger in this meditation
Feeling as though I would
lose my mind at any moment
Only my solitude is here by my side
Only my solitude is helping me to cope with myself.

Wednesday, May 14, 2008

जीओ जयपुर हजारों साल



ग़ालिब का एक मिसरा है - न होता मैं तो क्या होता


सोचा तो ये था कि चेन्नई के यात्रा संस्मरणनुमा भडास प्रकरण को पूरा करूंगा पर अपने शहर को यूं आतंकवाद के जद में घिरा पाकर स्तब्ध हूँ ,कल शाम से अनबोला सा हूँ ,मेरा शहर भी अब मुम्बई की तरह हादसों का शहर हों गया और ये कहते कोई गर्वानुभुति नही हों रही है। डेढ़ दशक से जिस शहर की आबो हवा में साँस ले रहा हूँ ,जो साँस की तरह है ,लाख बुराई कर लूँ,इसके बिना जीने की कल्पना नहीं कर पाता...उस शहर की शान्ति और खुशहाली को नज़र लग गयी ,अगर शहर के लोग माफ़ करें तो कहूंगा ख़ुद हमारी ही नज़र तो कहीं नहीं लग गई -राजस्थानी में कहावत है- 'सराही खिचडी दांत लागे ',या 'सरायो टाबर बिगड़ ज्यावे' इस दर्दनाक शर्मनाक हादसे ने जहाँ सरकार की नाकाबलियत को जाहिर किया वहीं शहर की एकता जिन्दादिली और मानवीयता से भी हमारा परिचय करवाया है ...

कल शाम ऑफिस में था राजस्थान पत्रिका के कार्टूनिस्ट अभिषेक भइया से लगभग उसी वक्त जब ये धमाके हो रहे थे फ़ोन पर बतिया रहा था तो वो मेरे ब्लॉग की पिछली पोस्ट में जयपुर के मौसम को प्यारा बताने पर असहमति जताते हुए कह रहे थे ' जयपुर में मौसम को छोड़कर सब अच्छा है,प्यारा है ',...वाकई ,पर अब एक दाग लग गया है इस चाँद में ...

अपने तकरीबन डेढ़ दशक के जयपुर प्रवास में कभी अपनी माँ को सिर्फ़ यह और इस तरह कहने के लिए फ़ोन नहीं किया कि 'मैं ठीक हूँ, कोई चिंता ना करें ' ...शुक्र है यहाँ से ५०० किलोमीटर दूर बैठी मेरी माँ ने तब तक (तकरीबन ८ बजे )टीवी नहीं ऑन किया था.. और पापा इवनिंग वॉक पर गए हुए थे ... वरना वो टीवी के सामने ही होते और...!!!


कव्वाल दोस्त फरीद साबरी आज कह रहे थे 'दुष्यंत भाई इस शहर को अमन पसंद ,शांत मानते रहे है,मुम्बई ना बसकर यहाँ रहकर कम कमाया, पर सुकून से रहे ...पर ये क्या हो गया ऐसे हादसे का तो कभी ख्याल ही नहीं आया...अल्लाह सबको सलामत रखे ',उन्होंने एक शेर सुनाया -'घर से निकलो नाम पता जेब में रखकर ,हादसे चेहरे की पहचान मिटा देते हैं...'


एक बात और बांटना चाहता हूँ कि मुझे अपने होने की खुशी का एहसास या कहूं दुनिया में थोडा बहुत ज़रूरी होने का एहसास भी इस दिन हुआ ,ये काला दिन मेरे लिए सुबह से ख़ास था,अपने जन्म दिन के दिन अपने शहर को इस तरह के हादसे में घिरा हुआ देखना किस तरह की फीलिंग दे सकता है, कल्पना करें..ख़ुद को कोसा भी..पर सुबह से शाम साढ़े सात बजे तक जितने लोगों ने याद नहीं किया , उसके बाद याद करने वालों की तादाद कहीं ज़्यादा थी ,इतने कम तकरीबन दो घंटे के अंतराल में इतने फ़ोन मुझे अब तक की इकतीस साल की जिन्दगी में कभी नहीं आए ..सब कुशल क्षेम पूछने के लिए ..कोई सेलिब्रिटी नही बना पर जो फीलिंग हुई उसे क्या नाम दूँ..भारत के हर कोने से कालीकट से जम्मू ,शिलोंग ,महाराष्ट्र ,गुजरात ,कोलकाता, हैदराबाद ,बेंगलोर ,दिल्ली,गोहाटी ,अम्बाला ,ग्वालियर, यहाँ तक कि निर्मम मानी जाने वाली फ़िल्म इंडस्ट्री के मित्रों ने भी कुशलता की जानकारी ली, कोपेनहेगन ,लंदन,कुवैत, केलिफोर्निया, मेसाचुसेट्स , टोरंटो ,दुबई तक से फ़ोन आए तो इस स्नेह और मुहब्बत से मेरी हालत क्या हो गयी कैसे बयान करूं ,मैं झुक गया ...पर कुछ दोस्तों और मेरी उम्मीद के मुताबिक एक फोन नहीं आया ...मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता ..छोडिये ना ...'उसकी दुआएं हमेशा साथ चलती हैं,मैं तन्हाई में भी तनहा नहीं होता..'

अपने जन्मदिन पर ईश्वर से ऐसे तोहफे(!) की कामना कभी नही की, न करूंगा ..मेरे शहर के लोग खुश रहे , दुनिया खुश रहे आबाद रहे ...अमन चैन हो..... आमीन

Monday, May 12, 2008

चेन्नई मेरी चेन्नई -2

तो माजरत के साथ फ़िर हाजिर हूँ,सेंतोमे की जगह मेरा सेंट थॉमस चर्च पहुँचना ही अव्वल तो मेरे बेवकूफ बनने की दास्तान है पर मेरा वहाँ पहुचना दिलचस्प इस मायने में है कि एक हादसा पेश आया , चलिए सिलसिलेवार सुनाता हूँ

इग्मोर से लोकल ट्रेन पकड़ने को सेंट थॉमस पहुचाने के लिए सबसे बेहतर बताया गया, चेटपेट से ऑटो लिया यहाँ पहला हादिसा पेश आया ऑटो वाले भाई को अंगरेजी नहीं आती थी और मुझे तमिल का एक अक्षर ..महान भारत की महान विविधता ...गुलज़ार की 'खामोशी' से संजय लीला भंसाली की 'ब्लेक' तक की सारी फिल्मों के अपने ज्ञान और अनुभव का इस्तेमाल करते हुए किसी तरह मैं उसे इग्मोर चलने को तैयार कर पाया,हालांकि अभी भी मुझे ख़ुद पे या उस पे विश्वास नहीं था कि मैंने उसे ठीक से समझा दिया याकि उसे ठीक से समझ में आगया ,और वो मुझे वहाँ पहुंचा देगा जहाँ मुझे जाना है...इग्मोरे पहुच कर जान में जान आयी और उसे तीस रुपये देकर मैं स्टेशन में दाखिल हुआ ,पता चला सेंट थॉमस जाने के लिए गिनडी तक ट्रेन है , ५ रुपये का टिकट लिया और सवार हो गया ,दिल्ली की मेट्रो और मुम्बई की लोकल से अलग ,बिल्कुल अलग सा माहौल ...चौथा या पांचवां स्टेशन गिनडी आया ,थोड़ी धक्का मुक्की हुयी ...भीड़ में पसीने की बदबू थी और उसका विशेष दक्षिण भारतीय फ्लेवर ...जिसकी कतई आदत नहीं थी ॥उस से बचकर निकालना एक यातना से निकलने जैसे ही था...उतरा ,चार कदम चला था कि भारतीय रेल के अधिकारिओं ने एक बिना टिकट यात्री तो धर दबोचा ,वो उत्तर भारतीय लग रहा था ॥और वो मैं था ...टिकट प्लीज़ ,सुनते ही पूरी सभ्यता से रुका और अपनी पॉकेट में हाथ डाला देखता हूँ टिकट नहीं है ,वो महोदय बोले ज़रा आराम से कर लें ॥मैंने तुरत फुरत सारी पॉकेट चेक कर डाली , मैंने उसे कहा सर मैंने टिकट ली थी पर मुझे नहीं पता वो कहाँ चली गयी ...उसने कहा आपके पास टिकट होनी चाहिए और नहीं है .. मैंने अति विनम्रता से कहा-'ठीक है टिकट तो नहीं है आप चार्ज कर सकते हैं 'मुझे विनम्रता में भलाई नज़र आयी ...उस व्यक्ति ने कहा अन्दर आ जाईये और ट्रेक के साथ के हाल नुमा कमरे की और इशारा किया.. अन्दर बैठे व्यक्ति ने रसीद बनानी शुरू की तो वह व्यक्ति जो मुझे अन्दर लाया था ने फ़िर मुझे मौका दिया कि मैं इत्मीनान से चेक कर लूँ ... मैंने चेक मेरी किसी पॉकेट में टिकट नहीं थी और अपने वोलेट को भी मैं बहुत तसल्ले से देख चुका था...मैंने सब निकाल एक टेबल नुमा जगह पर रख दिया मेरी हालत देखने लायक थी ऑफिसर ने कहा -लाईये २५६ रुपये ,मैंने लगभग अनसुना किया और कहा- एक मिनट और उस कमरे से बाहर निकला, पहला व्यक्ति मेरे साथ इस तरह चल रहा था जैसे मैं कोई जघन्य अपराधी हूँ ..मैंने देखा टिकट नीचे पडा था ..मुझे चैन आया..उस व्यक्ति ने कहा आप सौभाग्यशाली हैं...अन्दर व्यक्ति ने पूछा आप कहाँ से आए हैं मैंने कहा -इग्मोर॥उसने अगला सवाल दागा ताकि कन्फर्मं कर पाये कि वो मेरी ही टिकट है, मैंने कहा -पाँच रुपये का है ', टिकट दरअसल टिकट दिखाने की हडबडी में मेरी जींस की पिछली पॉकेट से वोलेट निकालते हुए नीचे गिर गया था ,जो वोलेट से चिपक गया था , जवाब आया-'आप जा सकते हैं ',और मुझे छोड़ दिया गया..ऐसे हादसे की कभी कल्पना नहीं की थी ,पर बाद में याद करके बड़ा मज़ा आया

आज इतना ही ....

Saturday, May 10, 2008

चेन्नई मेरी चेन्नई

थार से समंदर तक .....

माफी चाहता हूँ कि बहुत दिन बाद लिख पा रहा हूँ इस बहाने पहली बार सही रूप में अंदाजा हुआ कि मेरे इस भडास निकालने के ज़रिये को कितने लोग स्नेह भाव से पढ़ते हैं ,उन तमाम मित्रों ने फोन करके कहा कि यार बहुत दिन होगये गोली दिए हुए अब तो लिख दो कि क्या गुल खिलाये चेन्नई में ,ये किस जिज्ञासा के कारण था ये वो जानें पर जिन्होंने कभी मेरा ब्लॉग देखा भी होगा ये एहसास मुझे नहीं था ,खैर हाजिर हूँ ,चेन्नई से लौटने के दो हफ्ते बाद चेन्नई की यादों में फ़िर एक बार॥

चेन्नई यानी- साई ,मित्रा ,कविता,हेमा,सपना, हरिक्रिशन, श्रीलेखा,किट,पद्माजी ,वेंकटेश ,लैण्ड मार्क और हिगिन बोथम वाली बुक शौप्स और मरीना बीच ...कितना कुछ तैर रहा है आँखों के आगे ...चेन्नई यूं दूसरी बार गया था साल भर पहले इसी तरह के प्रोग्राम में गया था ,वो यादें थी ही ,इस बार जाते हुए दिल्ली से किसी शायर के लफ्जों में कहूं तो 'मेरे महबूब की दिल्ली ' से तमिलनाडु एक्सप्रेस के थर्ड ऐ सी में जाने का ख्याल भी यूं ही आ गया चलो लालू की सेवाओं का जायजा ले लिया जाए ,

१४ की शाम को ट्रेन थी ,जे एन यू में सुधीर से मिलने की इच्छा बहुत दिनों से थी तो सोचा चलो कुछ पहले चल के उस माहौल में जी लूँ जो मेरा अधूरा ख्वाब है ॥सुधीर से मिलने में हमेशा ये छदम इच्छा रहती ही हैं ॥और इसे वो भी जानता है कि जे एन यू उसके 'दुष्यंत भैया' की कमजोरी है ॥खैर चेन्नई के इस सफर में २८ घंटे की यात्रा में में उतार से दक्षिण पूरा हिन्दुस्तान देखना बहुत रोमांचक रहा ,एक दशक इतिहास पढने आधे दशक तक पढ़ने के दौरान जिस भारतीय विविधता का किताबी ज्ञान लिया उसे महसूस किया ये पिछली बार महसूस नही हुया क्योंकि वो गो एयर की एक दुखद विमान यात्रा थी जिसमे दिल्ली एयर पोर्ट से रात ९ बजे उड़कर साडे ग्यारह बजे चेन्नई पहंचाने वाले विमान ने अल सुबह तीन बजे उड़कर पाच बजे चेन्नई की धरती पर उतारा था ,पूरी रात कैसे बीती होगी कल्पना कर सकते हैं ..इस बार शायद एक वजह तो यही थी कि सस्ती विमान यात्रा से ट्रेन अच्छी
खैर ,वास्तविक भारत दर्शन का लुत्फ़ तो आप यकीनन रेल की यात्रा में ही उठा सकते हैं

...चेन्नई के रास्ते में बाला पंडीयान से मुलाक़ात भी दिलचस्प रही ,इन महोदय से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका, वे एक एनजीओ से जुड़े हुए हैं जो किशोरों और युवकों को जीवन मूल्यों के प्रति सजग और सक्रिय करने में लगा हुआ है और देश भर में उसके चेप्टर है यहाँ तक कि जयपुर में भी,बाला से पूछा जयपुर में कब से काम कर रहा है डेढ़ दशक के प्रवास में आज तक सुना नहीं ,, उनसे बतियाते और रविंदर कालिया की किताब ग़ालिब छूटी शराब तथा दर्जन भर हिन्दी अंग्रेजी की मेग्जीनों के साथ सफर गुजारा ,इस्मत चुग़ताई का नोवल 'जिद्दी 'अनपढा ही वापिस आ गया, हाँ जग सुरैया की 'कलकता ऐ सिटी रिमेम्बर्ड ' ज़रूर आधी पढ़ पाया चेन्नई को वर्क-शॉप के अलावा सुबह शाम ही देख सकता था ,


१५ की शाम पहुचा १६ को पूरे दिन फुरसत थी १७ से वर्क-शॉप थी लिहाजा एक लेखक होने का वहम पालने वाला व्यक्ति शहर को एक्सप्लोर करने निकल पडा, भरी गरमी में, अपने शहर गंगानगर की गरमी को याद दिलाने वाली गर्मी ...अपनी साथी मित्रा के शब्दों में 'बर्निंग होट',जहाँ ठहराया गया वहाँ एसी कमरा देने की व्यवस्था अज्ञात कारणों से हमारे लिए नहीं थी..यूं मेरा घर भी ए सी नहीं है पर जयपुर में ज़रूरत भी महसूस नहीं हुई ..वाह मेरे प्यारे जयपुर ..जहाँ का मौसम हमेशा प्यारा होता है ,इस बार तो यहाँ भी गरमी भयानक है ....सेंतोमे चर्च और मरीना बीच देखने का मन बनाया सेंतोमे का इम्प्रेशन ये था कि जीसस का एक शिष्य यहाँ आया ,इम्प्रेशन इसलिए कि सेंतोमे की जगह माउन्ट पर सेंट थॉमस चर्च पहुँच गया वहाँ पहुँचने का किस्सा भी खासा दिलचस्प है आप भी खिलखिलायेंगे , खिलखिलायें ना भी तो मुस्कुराए बिनातो हरगिज नहीं रहेंगे ..उसकी बात कल करूंगा..



Saturday, May 3, 2008

मरीना बीच पर कुछ पल

पिछले दिनों एक मीडिया वर्कशौप में चेन्नई जाना हुआ ,उस यात्रा और उस बीच के कुछ क्षण आपसे बाँट रहा हूँ-फिलहाल वीडियो के ज़रिये फ़िर शब्दों के ज़रिये भी कुछ बाते करूंगा

Thursday, January 31, 2008

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में फातिमा भुट्टो की दो मुद्राएँ




फातिमा बोलते हुए , दूसरी तस्वीर में विलियम डेलरिम्पल के साथ

Wednesday, January 30, 2008

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आमिर खान और अनुष्का शंकर










आमिर बच्चों को ओटोग्राफ देते हुए ,सितार बजाती अनुष्का शंकर और फिर आमिर के साथ बात करती शोमा चौधरी

Thursday, January 10, 2008

मेरे साहिर से कहो




अब मुझे आज़ाद करे


तसलीमा ,बेनजीर और अब किरण बेदी ....भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक एकता को इस मायने में सलाम करने को जी चाहता है कि सियासी सरहदों के बावजूद यहाँ तस्लीमाओं, बेनजीरों,किरण बेदियों, आंग सान सू कियों ,मेघा पाटकरों के साथ एक सा सुलूक होता है !क्या अद्भुत समानता है !क्या बुनियादी लोकतंत्र है !क्या मजाल कि रत्ती भर भी इधर का उधर हों जाये ?मुझे कात्यायनी की कविता याद आती है -
"जब भी नज़र डालती हूँ /इस अँधेरे विस्तार पर कौंधती है अनगिन रोशनियाँ /फैलती हुई/चमकदार धब्बों मी बदलती हुई /अनगिनत मानावाकृतियाँ दीखती हैं क्षितिज पर /सुनाई पड़ती हैं /बस आवाजें ही आवाजें ॥"


कोलाहल के बीच गूंजते सन्नाटे की धुन जिन कानों तक पहुचती हैं ,वी भी आखिरकार बहरे से क्यों हों जाते हैं ,येही सवाल यहाँ खडा होता है बरगद की तरह .सवाल और भी खडे होते हैं जो जवाब मांगते हैं -क्यों अरूसा आलम को सरहद पार के किसी विपरीत लिंगी विधर्मी से दोस्ती का हक नही हैं ?क्यों जगजाहिर काबिल महिला पुलिस अफसर को मातहत और अपेक्षाकृत रूप से कमज़ोर अफसर के सामने बौना कर दिया जाता है?क्यों मीडिया वालों और आम आदमी को जान और अस्मिता बचने को दर दर भटकती तसलीमा के चेहरे का विषाद नजाए नहीं आता ?क्यों ये पढा और छपा जाना ज़रूरी है कि उसने जयपुर मी अपने पुरुष मित्र के साथ एक ही कमरे में रात गुजारी ?ये सारे सवाल हमें खुद से पूछने चाहिऐ , इतना ही नही लगे हाथ यह सवाल भी हमें अपने आप से पूछना लाजमी है सरपंच पति आज भी सरपंच से ज़्यादा ताक़तवर क्यों है?क्यों हमारे बहुत से घरों में आज भी मताव्पूर्ण मसलों पर औरतों की राय को 'औरत की राय 'कह्का खारिज कर दिया जाता है?क्यों किसी भी प्रभावी ,मताव्पूर्ण या लोकप्रिय महिला का कद चुपके से आँख दबाकर आखिरी हथियार के रूप में उसके चरित्र पर सवालिया निशान लगाकर बौना कर देने का 'मर्दाना 'काम अक्सर अंजाम दिया जाता है ?


बड़ी मासूम से विडम्बना ये है जनाब कि इन सवालों के वजहात से भी हम अच्छे से वाकिफ हैं और कमाल ये भी है कि इन सवालों के जवाब इन सवालों में ही छुपे हैं.ये जानते हुए कि मुठ्ठी भर लोग अक्सर खुद से पूछते हैं, ये सवालों की सौगात आप सब जवाबों के जानकारों के नाम परवीन शाकिर के शब्दों के साथ -


"उसकी मुठ्ठी में बहुत रोज़ रहा मेरा वजूद,


मेरे साहिर से कहो अब मुझे आज़ाद करे ."

Friday, December 21, 2007

आलोक श्रीवास्तव


सच्चा शायर


कुछ समय पहले आलोक श्रीवास्तव नाम के ग़ज़लकार से रूबरू कराया था. याद करें- बाबूजी ग़ज़ल के हवाले से बचपन पर बात हुई थी. आज आलोक श्रीवास्तव और उनके पहले, ग़ज़ल संग्रह 'आमीन' की बात करूंगा. आलोक जितने प्यारे और सच्चे शायर हैं उतने ही प्यारे इंसान भी हैं. सच कहूं तो उनसे मिलने के बाद मेरे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो गया कि आलोक शायर ज़्यादा अच्छे हैं या इंसान. बहरहाल मैं इस जद्दोजहद से खुद को आजाद करता हूँ. क्योंकि 'आमीन' मंज़रे-आम पर है जिसमें सिमटा कलाम आलोक की उम्र से आगे की बात करता है.
अपनी उम्र के दूसरे ग़ज़लकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय इस शायर की रचनाएं साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में अर्से से शाया हो रही हैं. यहां, मुलाहिजा फरमाएं आलोक की सबसे ज़्यादा पढ़ी और गुनगुनाई जाने वाली अम्मा ग़ज़ल के चंद शेर-


चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र, पर छाई अम्मा,
सारे घर का शोर शराबा सूनापन तन्हाई अम्मा।

बाबूजी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई, तब
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई- अम्मा।

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा।
आलोक नज्में, गीत और दोहे भी इतनी ही महारत से कहते हैं, मुझे हैरानी यह होती है कि आलोक कितनी ख़ूबसूरती और सादगी से ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयां करते हैं. वो रिश्तों को केज़ुअली नहीं लेते बल्कि उसके हर पहलू को ताक़त बनाते हैं जिससे ज़िंदगी रोशन होती नज़र आती है, बजाहिर आलोक उम्मीद के शायर हैं, उनके क़लम में ज़िंदगी की धड़कन है और वो भी सौ फ़ीसदी पोज़िटिव-
मैं ये बर्फ़ का घर पिघलने न दूंगा,
वो बेशक करें धूप लाने की बातें.
अगर आप हिंदुस्तान के नौजवान लहजे की अच्छी शायरी पढ़ने का शौक़ रखते हैं तो आमीन ज़रूर पढ़ें. शायरी नहीं पढ़ते तब तो आमीन और भी पढ़ें, मेरा दावा है कि आप शायरी को अपनी ज़िंदगी में शामिल किये बिना नहीं रह पाएंगे, 'आमीन' नाम की यह ख़ूबसूरत किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, और पुस्तक पर कमलेश्वर और गुलज़ार की भूमिका इस बात का सबूत हैं कि आपने जो किताब उठाई है, वो एक अच्छे और सच्चे नौजवान शायर का दीवान है.

Friday, December 7, 2007

मैंने तसलीमा को देखा है- तीन




तसलीमा जी कह रही थीं कि कुछ पुरुष स्त्रियों का शोषण करते हैं और उसे सिर्फ उपभोग कि वस्तु यानी सेक्सुअल ऑब्जेक्ट मानते हैं ,कुछ लोग उन्हें समान मानते हैं ,मानव के रुप में व्यवहार करते हैं, दोस्ती का व्यवहार करते हैं.इस तरह एक ही समाज में हमें कई मानसिकताएं दिखाई देती हैं.इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि पुरूष ऐसे हैं या वैसे हैं .मुझे कुछ अच्छे पुरुष मित्र मिले हैं , वो भी मेरी तरह स्त्री अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, पर एक कड़वा सच है कि सदियों से चली आ रही पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था को इतनी सरलता से और शीघ्र समाप्त नहीं किया जा सकता,यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति वैचारिक तौर पर कितना स्पष्ट है और उसने कैसी शिक्षा प्राप्त की है, शिक्षा से मेरा तात्पर्य यहाँ किताबी शिक्षा से नहीं है ,स्वशिक्षा से है .मेरी नज़र में स्त्री और पुरुष दोनो को समानता के लिए प्रयास करने चाहिऐ ।
मैंने उनसे पूछा कि अगर तसलीमा से कहा जाये तो वह अपने जीवन का पुनर्लेखन कैसे करना चाहेंगी? तो उनका जवाब था कि बस मैंने जिया,समस्याएं झेलीं,मुझे अच्छे बुरे अनुभव हुए ,दोस्त मिले,फतवे मिले ,धमकियां मिलीं, .लिखने के कारण मुझसे कुछ लोग प्यार करते हैं तो कुछ नफ़रत भी करते हैं। जो मैंने अपने जीवन में किया मुझे उसका कोई अफ़सोस नहीं है .मैं महिला अधिकारों के लिए लिख रही थी ,लड़ रही थी,उसी वक्त मेरी माँ पीड़ित रही,मैं उनके दर्द को नहीं समझ पाई,उनकी देखभाल नही कर पाई,अगर री राईट कर पाती तो उनकी मदद करती,उनका ज्यादा सम्मान करती ।इस वक्त वो लगभग रूआसी हों गयी थीं,उन्होने पानी पीया ।
भाई दिनेश ने पूछा लज्जा से आज तक तसलीमा में क्या बदलाव आये? उनका जवाब ये था कि मैं बहुत परिपक्व हुयी हूँ ,शुरू से हीई कट्टरपन के खिलाफ थी, अब ये सोचती हूँ कि ये सब अब भी क्यों है,ये क्यों बढ़ रहा है?अब समस्याओं को ज्यादा गहराई से देख रही हूँ.अब गुस्सा नहीं आता, शांत हूँ,पहले चिल्लाती थी .अब मेरे लेखन में ज्यादा गहराई आयी है।
अब दिनेश भाई फॉर्म में आ गए थे ,शुरू में थोडा हिचकिचा रहे थे ,अगला सवाल भी उन्होने ही दागा -लेखन के अलावा क्या करती हैं? बोलीं -पढ़ती हूँ ,पेंटिंग्स बनाती हूँ ,दोस्तों से चैट करती हूँ,घूमती हूँ,लेखन एक मात्र काम नही है मेरा ।
दिनेश जी अगला सवाल उनके पसंदीदा लेखकों को लेकर था, जिसके जवाब में उनका कहना था कि बंगाली में शोमती चटोपाध्याय और कुछ युवा लेखक भी ,जबकि गोर्की ,लियो तोल्स्तोय ,ग्राहम ग्रीन और कुछ भारतीय लेखक।
अब तस्लीमाजी से हमने पूछा कि आप कैसी दुनिया का सपना देखती हैं? वो जैसे शून्यमें झाँकने लगीं ,फिर बोलीं-ऐसी सुन्दर दुनिया जहाँ महिलाएं अत्याचार और उत्पीडन से मुक्त हों,समाज धर्मनिरपेक्ष हों,सब में मानवता और प्रेम हों,सबको बिना लिंगभेद समान रुप से आगे बढ़ने के अवसर मिले.हर लेखक की अपनी दुनिया होती है,एक वो जिसमे वो जीता है,दूसरी वो जिसका वो सपना देखता है, ये मेरी वो दुनिया है जिसका सपना देखती हूँ। फ़िर उनकी पिछली और आगामी किताबों के बारे में उनसे बातें हुईं ,तकरीबन घंटा भर का साथ न भूलने लायक।
आज वो जिस पीडा में हैं , वो साथ ज्यादा याद आ रहा है ,मेरे मित्रों को ये तकलीफ है कि उन्होने किताब से वो हिस्सा हटाने की घोषणा की ,उनके मन में तसलीमा जी के प्रति सम्मान मे कमी आ गयी है, जबकि मुझे ख़ुद पे शर्म आयी कि मैं उस व्यवस्था का हिस्सा हूँ जिसने तसलीमा जी को विवश किया इस के लिए ,खैर अपना अपना नजरिया है.

Tuesday, December 4, 2007

एक अर्ज़

तसलीमा जी से हुई मुलाक़ात आपसे पूरी नहीं बाँट पाया हूँ,माफी चाहता हूँ क्या करूं कुछ तो अखबारी नोकरी और ऊपर से आतीहुई सर्दी, तबियत थोडी नासाज़ है,जल्द बाँट रहा हूँ ,मुझे पता है कुछ दोस्त बेसब्री से इंतज़ार में हैं जैसे भाई गौरव और श्वेत जी,पुनः क्षमा याचना के साथ प्यार बनाए रखें

Wednesday, November 28, 2007

मैंने तसलीमा को देखा है -दो


तसलीमा जी कि बात उस दिन अधूरी रह गयी थी , हाँ तो मैं उस मुलाक़ात को आपसे बाँट रहा था , अपने मित्र डॉ दिनेश चारन के साथ मैं उनसे मुखातिब था ,कुछ व्यक्तिगत बातें हुईं . उन्होने हमारे बारे में पूछा फिर हम ने पहला सवाल पूछा , कि उन्हें लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है , (बताता चलूँ पहले मैंने हिन्दी में बात की , फिर उन्हें असहज पाया तो अंगरेजी में बात करना मुनासिब समझा , लिहाजा ये अनुवाद है उनसे हुयी बात का)


उनका जवाब था कि मानव उसके दर्द उसकी खुशियाँ ही मुझे लिखने को प्रेरित करती हैं, बहुत छोटा सा पर मुक्काम्मक सा जवाब उन्होने मेरे हाथ पे रख दिया था।


मैंने जिज्ञासा रखी कि कि स्त्री विमर्श और फेमिनिज्म कि बात कब तक करते रहेंगे? वे थोडा रुकीं , सोचने लगीं और फिर बोलीं-जब तक महिलाओं के साथ समान व्यवहार व न्याय नहीं होगा तब तक.मुझे लगता है कई बार महिलाओं को कुछ समानता मिलती है पर वो प्रयाप्त नहीं है.सौ प्रतिशत समानता हर स्तर पर, जीवन के क्षेत्र में जब तक नहीं हों पायेगी, तब तक स्त्री विमर्श का प्रश्न बना रहेगा ।


हमने पूछा कि क्या आप मानती हैं महिलाओं के बारे में किसी महिला का ही लेखन अधिक प्रभावशाली व प्रमाणिक हों सकता है?


तो वे कहती हैं कि हाँ मैं ऐसा ही सोचती हूँ ,कुछ पुरुषों ने महिलाओं के दर्द और पीडा को लिखने के प्रयास किये हैं परन्तु वे केवल बाहरी तौर पर ही देख समझ और लिख पाते हैं,इसी कारण उनके लिखने मी एक गेप बना रहता है।


एक बहुत सहज जिज्ञासा थी मेरी कि उनसे पूछूं वे समग्रता पुरुष को कैसे देखती हैं ?? उनसे हिम्मत करके पूछ लिया तो बोलीं देखिए दुष्यंत सामान्यीकरण तो संभव नही है ,कुछ पुरुष अधिकारवादी होते हैं क्योंकि वे पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था कि उपज हैं ,और वे उसमे गहरा विश्वास रखते हैं,वे मानते हैं कि उन्हें स्त्री को दबाने का पूरा अधिकार है.वे अपने को श्रेष्ठ मानते हैं,