Monday, June 15, 2009

सौ साल की गवाही में एक किताब

हिंद स्वराज

आज एक किताब के बहाने उसके समय पर बात कर रहा हूं। पंद्रह साल पहले, पहली बार जब मेरा हिंद स्वराज नाम की किताब से राब्ता कायम हुआ था, गांधी को तार्किक रूप से समझना और उनके प्रति अपनी अगाध भक्ति के तार्किक आधार खोजना शुरू कर रहा था, उस वक्त किताब की उम्र जाहिर है 85 साल की थी। इस साल समय की रेत घड़ी में जब इस किताब को सौ साल हो रहे हैं, इस किताब की अहमियत मुझे लगता है कि बहुत बढ़ गयी है, जैसा गांधी इस किताब की भूमिका में कहते हैं कि यह द्वेष धर्म की जगह प्रेम सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्म बल को खड़ा करती है। दरअसल ये किताब भारत की दशा और बेहतरी के लिए मॉडल प्रस्तावित करती है हालांकि वे खुद कहते हैं कि हिदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रि य अंश के रूप में स्वीकारे तो स्वराज स्वर्ग से हिन्दुस्तान की धरती पर उतरेगा लेकिन मुझे दु:ख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना दूर की बात है। ये अक्षरश: सच है आज भी, उस निर्मम समय में जब जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और वंशवाद राजनीति में स्वीकार प्राय: हो गए हैं।हिंद स्वराज के सौ साल एक तरह से भारत के बदलाव के सौ साल हैं, इन सौ सालों ने गांधी का अप्रतिम, अकल्पनीय और अद्भुत नेतृत्व तो देखा ही, साथ ही क्रमश: बढ़ती साम्प्रदायिकता, देश का विभाजन और विभाजित देश का विभाजन भी, गांंधी की हत्या, समाजवादी लोकतंत्र के सपने का बुना जाना और आंशिक सफलता के बाद उसका बिखर जाना, कांग्रेस के एकनिष्ठ राज, पतन और फिर क्षेत्रीय ताकतों का उद्भव और पुन: कांग्रेस का उदय, पंजाब और कश्मीर का जलना, गांंधी के ही गुजरात में सांप्रदायिकता के तांडव, उत्तर पूर्व के संकट, घोटालों के चरम, आतंकवाद और इंदिरा तथा राजीव की हत्याओं के दौर जैसी स्थितियों के बीच बनते, बिगड़ते, उभरते, उलझते, सुबकते, सुलगते मुल्क को भी देखा है। तो इन तमाम स्थितियों की गवाह किताब को इस लिहाज से देखा जाना जरूरी है कि ये किताब भारत के बनने और उसके बाद लगातार होती भूलों और चूकों, सायास चालाकियों, छद्म-अदृश्य राष्ट्रद्रोहों के आलोक में हमारे देश के गुनाहगारों की करतूतों का अतीत में रहस्योद्घाटन करती है और जैसे आज सौ साल बाद आके हर हिंदुस्तानी से कहती है कि इस गुनाह में तुम भी बराबर के शरीक हो और ये वो प्रेमपूर्ण हिदुस्तान नहीं है जिसकी कल्पना गांधी बाबा जैसे आजादी के लिए लडऩे वाले लोगों ने की थी और वो सपने अभी अधूरे हैं। गांधी बाबा जब इसमें लिखते हैं कि अगर हिदू मानें कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसनमान ही रहें तो उसे भी सपना समझिए तब बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं ढहा था, गुजरात नहीं जला था। और जब इस किताब में गांधी बाबा कहते हैं कि उसने सच्ची शिक्षा पाई है जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इंद्रियां उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनाएं बिल्कुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है, ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित माना जाएगा। तो क्या इसे संसार के समस्त नीतिशास्त्रों का निचोड़ नहीं माना जाना चाहिए। क्या आधुनिक झंडाबरदार तथाकथित राष्ट्रवादी इस किताब में दिए स्वदेशाभिमान के अर्थ को ग्रहण करेंगे कि स्वदेशाभिमान का अर्थ मैं देश का हित समझता हूं, अगर देश का हित अंग्रेजों के हाथ होता हो, तो मैं आज अंग्रेजों को झुककर नमस्कार करूंगा।


मेरी राय में तमाम अतिशयोक्तियों से बचते हुए कहा जाय तो भी यह किताब भारतीय परिप्रेक्ष्य में बेहतर जीवन, बेहतर समाज, बेहतर राष्ट्र और फिर बेहतर दुनिया का सहज और व्यावहारिक रास्ता बताने वाली बेहतरीन किताबों मे से एक है और उन विरासतों में से भी है जिन्हें बचाना बहुत जरूरी है।

4 comments:

ओम आर्य said...

aapane sahi vishleshan kari hai kitab ki.......bahut sundar

girish verma said...

its simply wonderfull piece

शिखा पांडे said...

डाक्टर साहब
गांधी जी को देखने का नजरिया पसंद आया, लगा कभी फुर्सत में गांधी जी पर बने पूर्वाग्रहों पर भी तार्किक रूप से लिखेंगे. आपकी भाषा बहती हुई और बातें तार्किक मन को मोह लेती हैं,ठहरकर पढने का मन करता है. क्या बोलते भी ऐसे ही हैं! खुशनसीब हैं वो लोग जो आपके साथ काम करते हैं,आपके दोस्त हैं

sunanda ghosh said...

bahut achchha vishleshan kiya hai apne dushyant ji,thanks