कविता लिखना इतना अनायास होता है कि खुद मैं बहुत बार हैरानी करता हूं और फिर यह यकीन भी पुख्ता हो जाता है कि कविता दरअसल इलहाम होती है ऐसी ही एक ताजा इलहामी कविता पेशे नजर है-
बुझे से दिन और उदास शामें
बिखरे सपने हैं
उजाड से आशियाने में
जैसे टूटी हांडी में दबा रखती थी कुछ बीज मेरी दादी
दस घडों वाले परिंडे के कोने में
मुझे सहानुभूति की जरूरत नहीं है
पर छुपाना भी तो नहीं आता है मुझे
सच कह रहा हूं
छुपाने की नाकामयाब कोशिशों में
बहुत खत्म हुआ हूं मैं, मेरे दोस्त
शाम ढल ही जाती है
सुबह हो ही जाती है
उम्र बीत ही जाती है
छूटे हुए रिश्ते और बिछडा हुआ प्रेम
तात्कालिक याद से हट जाते हैं कुछ वक्त बाद
जीना संभव बनाने के लिए
या
जीना संभव हो ही जाता है
हांडियां कई बंधी है
बीज जिनके बेकार हो गए हैं
दिन मेरे बुझ गए हैं
और शामें बेतरह उदास
क्या किसी हांडी में छुपाके मिटटी में दबा दिया गया है
उनका कुछ हिस्सा हमेशा के लिए।
Painting by Tim Parish
4 comments:
ये कविता मुझे बहुत होंट करती है.
आप ठीक कहते हैं .कविता इल्हाम से ताल्लुक रखती है.आपकी यह कविता बड़ी खूबसूरत बन पड़ी है. मुबारकां
छूटे हुए रिश्ते और बिछडा हुआ प्रेम
तात्कालिक याद से हट जाते हैं कुछ वक्त बाद
जीना संभव बनाने के लिए
या
जीना संभव हो ही जाता है
बहुत सुन्दर कविता है दुष्यंत जी. बधाई.
Yeh kavita saa bahot kuch hai. dil ko chou lane wali bhavana. badhai
itni sunder jaise neeli pahadiyon par dheeme utarta akela baadal
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