Saturday, April 2, 2011

इतिहास की मौत के दिनों में





इस देश में अब इतिहास की जरूरत नहीं बची है, उसकी जगह प्रशस्तिमूलक जीवनियां और मिथकशास्त्र पढाए जाने चाहिए, और ऐतिहासिक शोध में लग रहे धन और उर्जा को नष्ट होने से बचाना चाहिए...



गांधी को लेकर फिर एक किताब और लेखक चर्चा में है। महान इनसान पर ऐसे लांछन शुक्र है कि अब भी लोगों को दुखी करते हैं, खासकर जब उन दुखी लोगों में ज्यादातर लोगों का प्राथमिक आदर्श सच नहीं है और बात ऐसे महान इनसान की हो रही है जो सच के पैरोकार के रूप में मशहूर रहा है, वैसे सच का आदर्श निरपेक्ष ही होना चाहिए या होता है, सापेक्ष नहीं। गांधी खुद भी अगर होते तो तो शायद शायद क्या कम से कम मुझे तो यकीन ही है कि वे ऐसा व्यवहार नहीं करते।

सवाल पुलित्जर से सम्मानित पत्रकार लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब ''ग्रेट सोल - महात्मा गांधी एंड हिज स्टृगल विद इंडिया'' में उनकी समलैंगिता की ओर इशारे का है हालांकि लेखक ने एक बयान में इसका खंडन किया है कि मेरी किताब में उन्हें समलैंगिक बताया गया है..

यहां यह बताना जरूरी है कि गांधी जी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी के एक ताजा लेख में ऐसी अंध भावुकता का ना होना बहुत सुखद है, क्या कीजिएगा अगर उन्हे गांधी जी पर ऐसे गैरभावुक लेख के लिए देश निकाला दे दिया जाए... ताजा खबर यह है कि इस किताब के बाद सरकार का रूख है कि कौमी प्रतीकों के साथ राष्ट्रपिता के अपमान पर भी सजा होगी(बजाय इसके कि इतिहासकारों का एक समूह उस किताब में प्रस्तुत तथ्यों की प्रामाणिकता और ऐतिहासिकता जांचता), तो ऐसे में मेरी बुनियादी स्थापना और निजी विचार है कि अब इतिहास को विषय और अनुशासन के तौर पर समाप्त कर देना चाहिए, क्योकि जब ऐतिहासिक सच की तलाश से बडा सवाल अपमान को रोकना हो जाएगा, वहां इतिहास के जिंदा बचने की संभावना क्षीणतम ही होगी।

याद कीजिए कुछ समय पहले एक ऐतिहासिक मसले पर न्यायालय का फैसला देश की आस्था के आधार पर आया था तो इतिहासकारों के बडे वर्ग ने इतिहास के साथ इस बलात्कार (यह शब्द मैं दे रहा हूं, क्षमा करें), पर सामूहिक चिंता जताई थी।

फर्ज कीजिए कि या मान ही लीजिए कि मेरे दादा अपने जीवन की अनगिन उपलब्धियों के साथ, एक दिन मुझे पता चले कि बलात्कारी भी थे, मेरी नजर में वे गिर जाएंगे और मुझे तुरंत लीपापोती करनी चाहिए और उन प्रमाणों को नष्ट करने में अपना सबकुछ दांव पर लगा देना चाहिए कि यह सच यह राज जाहिर ना हो और मेरी और प्रकारांतर से सब मुझे या मेरे दादा को जानने वालों की नजर में उनकी प्रतिष्ठा बची रहे, बहुत सभव है कि आप सहमत होगे कि मुझे ऐसा ही करना चाहिए और तमाम सबूतों को नष्ट करके मुझे मान लेना चाहिए कि दादाजी की छवि मैंने बचा ली है और वे महान बने रहेगे और कभी वैसा सबूत दुबारा नहीं मिलेगा जैसा मैंने नष्ट कर दिया है....पर मेरी राय है कि इतनी सहिष्णुता तो हम में अवश्य ही होनी चाहिए कि अपने पूर्वजों को इनसान मानकर उनकी मानवीय कमजोरियों और उससे जुडी बातों को हम उसी भाव से स्वीकार कर लें जिस भाव से उनपर गर्व करने वाली बातों को स्वीकार करते हैं, और इस स्वीकार के साथ उनका इनसान होना खारिज ना करें।

इतिहास के साथ जुडाव ने यह समझ बनाई है कि तथ्य मिलें और प्रमाण हों तो कुछ भी प्रिय अप्रिय स्वीकार करना ही चाहिए वहा भावुकता का सवाल नहीं है, पुनः कहना चाहिए कि इस किताब से उपजे विवाद के मददेनजर भी ऐतिहासिक नजरिए से तथ्यों कर परीक्षण सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी होनी ही चाहिए !

मेरी समझ में यह नहीं आता कि अब तक जो बाते जाहिर और सिद्ध हुई है जिनसे गांधी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में वह पता चलता है जो उनकी देश के पिता के बतौर सम्मानीय होने में बाधक हो सकती थीं! क्या वाकई उनसे अंतर आया है या आना चाहिए? आजादी के आंदोलन की उनकी भूमिका एक नेता की भूमिका थी और व्यक्ति के तौर पर गांधी की भूमिका अलग मसअला नहीं है क्या? सुभाष, भगतसिंह, चौरी चौरा, पूना पैक्ट और भारत का विभाजन लगातार उनकी चर्चा और आलोचना के विषय रहे हैं, पर मेरा मानना है कि कोई भी मसअला, बहस, कुलमिलाकर देश की आजादी में उनके योगदान को कमतर नहीं कर सकते, ऐसा ही मेरा मानना उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर है !

बहरहाल ताजा बहस पर लौटते हैं, अगर यह विधेयक बन जाता है तो पारित होकर लागू हो जाता है तो, अब फिर वही सवाल खडा है कि क्या महान लोगों को क्रमश: देवता बनाकर आस्था का प्रश्न ही बनाता है, उन्हें हम ऐसे व्यक्ति हाड़ - मांस के इनसान के तौर पर देख और मान नहीं सकते जिन्होने मानव इतिहास में उपस्थित होकर अपनी मानवीय कमजोरियों के साथ महान काम किए...पर महान इनसान को सम्मान देते हुए उसे सामान्य व्यक्ति के रूप में खारिज करना क्यों जरूरी है, दूसरा अगर व्यक्ति के बतौर उसकी कुछ ऐसी छवियां प्रकट हो जाएं जो उसकी महान छवि में तनिक निषेध आरोपित करती हों और सप्रमाण हो तो क्या हमारी परंपरागत छवि की निरंतरता के लिए उन नए ऐतिहासिक तथ्यों को कूडेदान में डाल इेना चाहिए और उन खोजी व्यक्ति को जेल में! अगर ऐसा करना ही महान व्यक्तियों के प्रति हमारे सम्मान को निरंतरता दे सकता है तो मेरा बहुत विनम्र सा निवेदन है कि इस देश में अब इतिहास की जरूरत नहीं बची है, उसकी जगह प्रशस्तिमूलक जीवनियां और मिथकशास्त्र पढाए जाने चाहिए, और ऐतिहासिक शोध में लग रहे धन और उर्जा को नष्ट होने से बचाना चाहिए,. एक गलती देशद्रोही का खिताब दिलवा सकती है, उम्र भर की अकादमिक या वैचारिक दुनिया की प्रतिष्ठा को नेस्तनाबूत कर सकती है।