बिनायक सेन को देशद्रोही मानने से इनकार करते हुए भारत की अदालते आला का यह कहना बहुत मायने रखता है कि किसी के घर में नक्सली साहित्य मिल जाने से वह नक्सली ठीक वैसे ही नहीं हो जाता जैसे गांधी की आत्मकथा रख लेने मात्र से कोई गांधीवादी।
बिनायक सेन के बहाने कितना कुछ कहा जा सकता है ठीक वैसे ही जैसे अन्ना हजारे के बहाने। जब कभी इक्कीसवी सदी के दूसरे दशक का इतिहास लिखा जाएगा तो कहा जाएगा कि यह अन्ना और बिनायक का समय था जिसमें इरोम शर्मिला भी थी, और तीनों के साथ देश का सुलूक अलग अलग था। बिनायक सेन को लेकर भारत की अदालते आला का फैसला और उसकी भाषा दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, आला अदालत का यह कहना बहुत मायने रखता है कि किसी के घर में नक्सली साहित्य मिल जाने से वह नक्सली ठीक वैसे ही नहीं हो जाता जैसे गांधी की आत्मकथा रख लेने मात्र से कोई गांधीवादी। इस अहम फैसले के बाद आज क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि आजाद भारत का सबसे बडा इतिहासकार रामचंद्र गुहा और अर्थशास्त्री आद्रे बेते क्यों उनके साथ खडे थे। क्यों दुनिया भर के बुद्धिजीवियों ने उनका समर्थन किया उनमें अमत्र्य सेन जैसे दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता थे।
मेरी पहली अनौपचारिक मुलाकात बिनायक सेन से कोई दस बरस पहले शायद जेएनयू के ब्रह्मपुत्रा छात्रावास में हुई थी, यह एक सार्वजनिक मुलाकात थी, जब वे मैस में बुलाए गए थे, जब मैं करोलबाग के एक सस्ते से होटल में अपने एक ब्रिटिश रिसर्च स्कॉलर दोस्त के साथ रुका था और राष्ट्रीय अभिलेखागार की अपनी तय दिनचर्या को तोडक़र दिल्ली की सर्दी में दो बसें बदलकर उन्हें सुनने पहंचा था, हालांकि ठीक-ठाक सी व्यक्तिगत मुलाकात इसके सालों बाद हाल ही कुछ महीनों पहले जयपुर में पीयूसीएल के एक आयोजन में हुई। तब तक पिछली मुलाकात धुंधली हो गई थी, देखना भर जेहन में अटका हो तो बहुत, पर अब जो चेहरा सामने था, वक्त के निशान उस चेहरे पर कुछ इस तरह से थे कि शक्ल के नक्श बदल गए थे, कि चेहरा नया सा था। मेरा बहुत मन था कि उनके नक्सली संपर्को पर उनसे तीखे सवाल करूं कि क्यों वे मासूम मनुष्यों को मारने वाले लोगों के साथ खड़े नजर आते हैं? पर मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी मासूमियत और सहज मानवीयता ने मुझे वे क्रूर सवाल करने से रोक दिया। हालांकि बहुत से मित्र लोग सेन की इस मासूमियत के दूसरे अर्थ निकाल सकते हैं, निकालेंगे ही, और निकालना उनका लोकतांत्रिक अधिकार भी है। पर क्या यही अधिकार सेन को दिया जाता है, यकीनन नहीं! उनसे मैंने पूछा- 'क्या योजना है? कल को किस उम्मीद से देखते है?' तो उनका जवाब था- 'जी पाना और बेहतर दुनिया के लिए खड़े लोगों का साथ देने की कोशिश करना।' ..
फिर कुछ समय बाद उनकी यह गिरफ्तारी हो गई और उसके बाद जो कुछ हुआ वह सब अखबारों में दर्ज है ही।
मुझे कहने में शर्म नहीं है कि कुछ महीनों पहले जब बिनायक सेन की पत्नी और बेटी जयपुर आए तो सामाजिक कार्यकर्ता और बिनायक समर्थक उनसे मिले, उनकी भीड़ के पीछे मैं भी कहीं खड़ा था, तब भी मेरा नैतिक समर्थन उन्हें था, जब मुख्य धारा का मीडिया उनके पक्ष में खड़ा होने से कतरा रहा था या उसकी जुबान बिनायक को लेकर कमोबेश वही थी जो उसे गिरफ्तार करने वाली पुलिस की थी या तदंतर सरकार की थी।
विश्वकप जीतने के उन्माद में डूबे देश को टीआरपी ढूंढते मीडिया ने अन्ना से मिलवा दिया, क्या अजीब बात नहीं है कि जो लोग पत्रकार सरकार विरोधी होने को देशद्रोह कहते थे, अन्ना के पक्ष में खडे हो गए जबकि अन्ना भी सरकार का ही विरोध कर रहे थे। संयोग ही है कि कोई सरकार विरोधी होकर नायक हो जाता है कोई खलनायक की हद तक खड़ा कर दिया जाता है बिनायक को खलनायक की हद तक ले जरने का तार्किक आधार यह दिया गया कि वे नक्सली समर्थक हैं और नक्सली सरकार विरोधी हैं, अब सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि नक्सल समर्थन भी देशद्रेह नहीं है, बहुत बहुत मायने रखता है, यह अपने आप में एक नजीर है और भारतीय लोकतंत्र की ताकत भी। हालांकि संभावना थी भी और ऐसा हुआ भी कि बिनायक को फांसी चढ़1ने की मंशा रखने वाले लोग देशद्रोह के कानून को ही बदलवाने की मांग करेगे और ऐसी आवाजें उठने लगी हैं। यह फैसला इस लिहाज से भी देखे जाने की जरूरत है कि सरकार और देश में अंतर होता है और पुलिस ट्रायल खतरनाक होता है, पुलिस की बात को अक्षरश: स्वीकारना सरकार और मीडिया देानों के लिए ठीक नहीं है, उसके आधार पर बात करें तो एक मासूम सा सामान्यीकरण करने की गुस्ताखी करने की इजाजत दें कि पुलिस की नजर में क्या हर व्यक्ति अपराधी, हर स्त्री चरित्रहीन, हर संबध अवैध संबध नहीं होता है, ऐसा पुलिस महकमे में आला अफसर दोस्तों के मुख से भी सुना है कि क्या करें यार, ना चाहते हुए भी सोच लगभग ऐसी ही हो जाती है। पुलिस से आगे बढकर, मुझे एक भारतीय के रूप में कह और स्वीकार कर लेना चाहिए कि सामान्यीकरण करने की हड़बड़ी में कितने ही गलत निष्कर्ष निकाल लिए जाते हैं हालांकि दार्शनिक भाषा में यह भी एक सामान्यीकरण ही है।
तारीख गवाह है कि दुनिया में कितने ही उदाहरण है जब दार्शनिकों, लेखकों, कलाकारों को सरकार विरोधी कहकर जेलों में डाला गया। और ऐसे मामलों में प्राय: और बार- बार यह स्थापित हुआ है कि सरकार विरोधी होने और देश विरोधी होने में अंतर होता है, तानाशाह तो अपने खिलाफ को ही देश विरोधी मान लेते हैं क्योंकि अपने आप में वहीं स्वयंभू देश होते है। निसंदेह भारत में ऐसे उदाहरण कम है सिवाय एमरजेंसी के, तो यह उदाहरणों की अनुपलब्धता बनी रहे हमें ऐसी ईश्वर से प्रार्थना और हमें आपस में ऐसी कोशिश करनी चाहिए।
उम्मीद करें कि बिनायक के बाद पुलिस हर सरकार विरोधी को नक्सल समर्थक को देशद्रोही नहीं मानेगी और पुलिस के बयान और निष्कर्ष को मीडिया के लोग अंतिम सत्य नहीं मानेगे, (जबकि हम देखते हैं किसी भी अपराध समाचार में एक ही नजरिया होता है जो कि पुलिस की नजरिया होता है ) हम भारत को एक दुनिया का सबसे बडा ही नहीं परिपक्व और बेहतर लोकतंत्र भी कह सकेगे। आखिर में बिनायक की तरह देशद्रोह के आरोप में पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान की जेल में बंद रहे फैज अहमद फैज जिनकी इस साल पूरी दुनिया में जन्म शताब्दी मनाई जा रही है, के शब्द याद कर लें- ''अब वही हर्फे जुनूँ सबकी जुबां ठहरी है, जो भी बात निकली है, वो बात कहां ठहरी है।''
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